रखवाला
वे भेड़ों को तो चराते ही हैं, लेकिन पर्यावरण के रखवाले भी हैं. जानवर चराने के दौरान या तो वे पेड़ लगाते हैं या फिर गड्ढे खोदते हैं. आप सोचते होंगे, कि वे गड्ढे क्यों खोदते हैं? ये गड्ढे असल में तालाब या झील बन जाते हैं और जानवरों के पानी पीने के काम आते हैं.
गड्ढे खोदने का यह काम उन्होंने आज से 40 वर्ष पहले शुरु किया था. पहाड़ी इलाके में जानवर ऊपर तक नहीं जा पाते थे. कारण यह कि वहां चारा तो बहुत था, लेकिन पानी नहीं. उन्होंने पहले गड्ढे को लकड़ी से खोदा था. यों तो बहुत मुश्किल था, लेकिन जमीन को थोड़ा ही खोदना पड़ा और पानी निकल आया. धीरे-धीरे 2017 तक 6 तालाब बनकर तैयार हो गए और जानवरों की बल्ले-बल्ले हो गई.
अब अच्छे काम करेंगे, तो नजर में तो आएंगे ही, सो इनाम मिलने भी लाजिमी हैं. वैसे इन इनामों की धनराशि का उपयोग वे गड्ढे/तालाब बनाने में ही खर्च कर रहे हैं. अब तक वे 14 गड्ढे/तालाब बना चुके हैं. उन्होंने इन पैसों से औजार खरीदे और मजदूर लगाकर तालाब बनवाए. उन्होंने पहाड़ी पर जानेवालों के लिए एक रास्ता भी बनवाया. उनके बच्चे आज भी झोंपड़ी में रहते हैं और जानवर चराते हैं. इस साल उन्होंने पहाड़ी पर 2,000 से ज्यादा बरगद के पेड़ लगाए हैं. अब तो उनके बेटे ने भी पिता के काम को अपना काम बना लिया है.
जानवरों और पर्यावरण के रखवाले कर्नाटक के मांड्या निवासी केरे कामेगौड़ा हैं, जिनकी उम्र 82 वर्ष है. वे आज भी एकदम फिट हैं और रोज पहाड़ी पर चढ़ते हैं और उतरते हैं. कामेगौड़ा ने पढ़ाई नहीं की है लेकिन उन्होंने तालाबों का नाम पौराणिक कथाओं के नाम पर रखा है. उन्होंने पहले तालाब का नाम गोकर्ण रखा.
बिना पढ़े-लिखे और बिना किसी तकनीकी कौशल के भी कामेगौड़ा ने पानी के बहाव और अन्य चीजों के बारे में अपनी समझ विकसित की और लोगों को भी अपने काम से प्रभावित किया।