लेख– अविश्वास प्रस्ताव और विपक्ष की मंशा!
लोकसभा में हर मर्तबा अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का कतई मक़सद यह नहीं हो सकता, कि यह सरकार गिराने की एक प्रक्रिया हो। यह प्रचंड बहुमत से बनी राजग सरकार के खिलाफ लाए गए विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव ने भी साबित किया। देश ही नहीं वैश्विक पटल पर जहां भी लोकतांत्रिक सरकारें स्थापित होती हैं। वहां विपक्ष किसी ख़ास मुद्दे पर सरकार को घेरकर अपने राजनीतिक हित में अवाम की राय निर्मित करने के लिए अब अविश्वास प्रस्ताव का उपयोग करने लगी हैं। अगर यहां अविश्वास प्रस्ताव को लेकर इतिहास के पन्नों को टटोला जाएं, तो शायद ही ऐसी कोई सरकार हो। जिसे विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव से घेरने में कोताही बरती हो। अविश्वास प्रस्ताव को लेकर इतिहास इस बात का भी साक्षी है, कि इसके भंवर में फंसकर अभी तक हमारे लोकतांत्रिक इतिहास में सिर्फ़ एक बार सरकार को औंधे मुँह होना पड़ा है। वह सरकार राजग की अटल बिहारी के नेतृत्व में थी, जिसे एक मत से हार का मुंह देखना पड़ा था।
(1) अविश्वास प्रस्ताव की प्रक्रिया–
ऐसा नहीं कि भाजपानीत वर्तमान सरकार के पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था। उसके पास ख़ुद के 273 के क़रीब सांसद हैं। जो पूर्ण जादुई आंकड़ा वर्तमान संसदीय प्रणाली में सत्ता पाने का है। ऐसे में विपक्ष द्वारा लाया गया अविश्वास प्रस्ताव निजी हित साधने के लिए सरकार पर दवाब बनाने से ज़्यादा कुछ मामूल नहीं पड़ता। ऐसा इसलिए भी, क्योंकि इस अविश्वास प्रस्ताव की नींव आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न मिलने और विपक्षी एकता का नमूना पेश करने के बाबत लाया गया था। तो अगर हम बात यहां पर अविश्वास प्रस्ताव, कांग्रेस की नीतियों और विपक्षी एकता की कर ही रहें हैं। तो आइए हम जानते हैं कि क्या होती है संसद में अविश्वास प्रस्ताव पेश करने की प्रक्रिया आदि के बारे में सविस्तार रूप से। यहां पर गौरतलब है, कि आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिलने से नाराज़ चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम पार्टी ने न केवल भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन से नाता तोड़ लिया है, बल्कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव भी इसी दल की अगुवाई में आया।
ऐसे में अगर हम बात करें, कि किस तरह अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है, तो सर्वप्रथम विपक्षी दल को लोकसभा अध्यक्ष या स्पीकर को इसकी लिखित सूचना देनी पड़ती है। तदुपरांत स्पीकर उस दल के किसी सांसद से इसे पेश करने के लिए कहती है। ऐसे में यहां एक सवाल पुनः उत्पन्न होगा, कि इसे किन स्थितियों में लाया जाता है। तो इसका जवाब यह है, कि जब किसी दल को लगता है कि सरकार सदन का विश्वास या बहुमत खो चुकी है। तब वह दल अविश्वास प्रस्ताव पेश कर सकती है। ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव चुटकी में स्वीकृत नहीं हो जाता इसके लिए कुछ संवैधानिक क़ायदे हैं। इसके मुताबिक अविश्वास प्रस्ताव को तभी स्वीकार किया जा सकता है, जब सदन में उसे कम से कम 50 सदस्यों का समर्थन हासिल हो। नियम यह भी कहता है, कि अगर लोकसभा अध्यक्ष या स्पीकर किसी अविश्वास प्रस्ताव को मंजूरी दे देता है, तो प्रस्ताव पेश करने के 10 दिनों के अदंर इस पर चर्चा होनी आवश्यक होती है। उसके उपरांत स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग करा सकता है या फिर कोई अन्य फैसला ले सकता है। यह हुई बात सामान्य नियम की।
ऐसे में अगर टीडीपी के पास सिर्फ़ 16 सांसद और वाईएसआर कांग्रेस के लोकसभा में नौ सदस्य हैं। तो इस प्रस्ताव में सिर्फ़ मोहरा टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस थी। असल चाल तो कांग्रेस चल रही थी। वह अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से विपक्षी एकता का हव्वा देश में खड़ा करना चाहती थी। इसके अलावा कांग्रेस की अंदुरुनी मंशा थी, कि वह भाजपानीत सरकार को घेरकर अपनी स्थिति जनमानस के बीच बेहतर कर लेगी। पर जब सोनिया गांधी ने बोल-बच्चन में आकर अविश्वास प्रस्ताव के पहले कह दिया था, कि उनके पास सरकार गिराने की संख्या बल उपलब्ध है। ऐसे में सारी विपक्षी एकता अगर 126 पर ही सिमट गई। तो इसे किस रूप में देखा जाएं। इतना ही नहीं जो राहुल गांधी पंद्रह मिनट का समय मांगकर भूकम्प लाने की बात कर रहें थे। उनकी आंख मारने जैसी संसद में बचकानी हरकत ने उनकी ही छवि को बट्टा लगाने का कार्य ही किया है।
(2) इतिहास के झरोखों में अविश्वास प्रस्ताव–
लोकतांत्रिक व्यवस्था में अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष के लिए एक अवसर है, एक लोकतांत्रिक हथियार है। यह विपक्ष को प्राप्त जनतांत्रिक अधिकार है। जिसके उपयोग से न सिर्फ़ बहुमत में संख्या बल की कमी होने पर चुनी हुई सरकार को गिराया जा सकता है। इसके साथ बेलगाम होते सत्ता के सारथी पर चाबुक भी मारा जा सकता है। इतिहास के पन्ने पलटने पर मामूल पड़ता है, कि इस जनतांत्रिक अधिकार का उपयोग करने में भी विपक्ष कतई पीछे नज़र नहीं आया है, भले ही विपक्ष की वास्तविक मंशा अविश्वास प्रस्ताव के पीछे की कुछ भी रही हो। इतिहास की तरफ़ जब हम झांकने की हिमाकत करते हैं, तो यह दीगर होता है। सरकार किसी की भी रही हो। कम समय के लिए या पूर्ण अवधि के लिए अविश्वास प्रस्ताव का सामना उसे जरूर करना पड़ा है। अब ऐसे में अगर हम बात करें, तो सबसे पहले लोकतांत्रिक व्यवस्था में अविश्वास प्रस्ताव का सामना जवाहर लाल नेहरू की सरकार को 1963 में करना पड़ा था।
उस समय यह अविश्वास प्रस्ताव कभी नेहरू के काफ़ी क़रीबी रहें, जेबी कृपलानी ने रखा था। इस अविश्वास प्रस्ताव से नेहरू को सत्ता से हाथ तो नहीं धोना पड़ा, फ़िर भी संसद में उनकी सरकार की ख़ूब किरकिरी विपक्ष ने की। इसके बाद लालबहादुर शास्त्री जैसे ईमानदार छवि के प्रधानमंत्री को भी अपने छोटे से कार्यकाल के दरमियां तीन बार अविश्वास प्रस्ताव से गुजरना पड़ा। इंदिरा गांधी को तो अपने लंबे कार्यकाल के दौरान सबसे अधिक पन्द्रह बार अविश्वास प्रस्ताव का कोपभाजन बनना पड़ा। ख़ैर उन्होंने भी एक बार भी अपनी सत्ता अविश्वास प्रस्ताव के कारण नहीं गंवाई। इसके अलावा राजीव गांधी ने एक बार तो वहीं नरसिम्हा राव की सरकार को दो बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी नीत मोरारजी भाई की सरकार को भी अविश्वास प्रस्ताव से होकर गुजरना पड़ा। पर संसदीय इतिहास में इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से पहली बार सरकार जो गिरी, वह अटल बिहारी के नेतृत्व की सरकार थी। जिसे संसद में विश्वास दिखाने में एक मत की कमी पड़ी थी।
वैसे इतिहास का झरोखा यह कहता है, हाल ही में भाजपा सरकार के खिलाफ लाया गया यह संसदीय इतिहास का 27 अविश्वास प्रस्ताव था। वहीं अगर सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का रिकॉर्ड देखें तो वह माकपा सांसद ज्योतिर्मय बसु के नाम है। जिन्होंने अपने चारों प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ रखे थे। इसके अलावा अगर बात अटल बिहारी बाजपेयी की हो तो उन्होंने विपक्ष में रहते हुए दो बार अविश्वास प्रस्ताव लाए। पहला प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के ख़िलाफ़ , और दूसरा नरसिंह राव सरकार के ख़िलाफ़। इसके अलावा सत्ता में रहते हुए उन्हें भी दो बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। जिसमें वे दोनों बार विश्वास नहीं प्राप्त कर पाए। 1996 में तो उन्होंने मतविभाजन से पहले ही इस्तीफ़ा दे दिया और 1998 में वे एक मत से हार गए।
(3) अविश्वास प्रस्ताव को लेकर विपक्ष का मक़सद–
जब सारी स्थितियां पहले ही ज्ञात थी। फ़िर विपक्ष के द्वारा लाएं गए इस अविश्वास प्रस्ताव का साधारण सा मक़सद यह था, कि वह संसद में सरकार को ज़लील करें, और अपने लिए सहारे का तिनका ढूढ़ सकें। इसके अलावा लोकसभा चुनाव में कौन सी पार्टी किन मुद्दों को लेकर जनता के बीच 2019 में जाने वाली है, उसकी बानगी भी इस अविश्वास प्रस्ताव ने पेश किया है।कांग्रेस का अहम मक़सद अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से राहुल गांधी की स्वीकार्यता को भांपना था। साथ में इसी बहाने वह चाहती थी, कि उसे ज्ञात हो जाएं, कि वह विपक्षी एकता स्थापित करने में किस हद तक कामयाब हो रहीं है। एक अनुमान लगाया जा रहा था, कि बीजेडी और टीआरएस जैसी पार्टियां विपक्ष के साथ ख़डी होंगी। पर इन पार्टियों ने मतदान में हिस्सा न लेकर विपक्षी एकता में दरार का आभास करा दिया है। इसके अलावा राहुल गांधी की समय-समय पर बचकानी हरक़त और अन्य क्षेत्रीय दलों के मुखिया की दबी हुई प्रधानमंत्री बनने की इच्छा भी विपक्षी एकता में रार डाल रही है। ऐसा इसलिए कह रहे, क्योंकि बीजू जनता दल के नवीन पटनायक और सपा के अखिलेश यादव को छोड़कर अन्य सभी क्षेत्रीय नेताओं के भीतर कभी न कभी प्रधानमंत्री बनने का दिवास्वप्न आता रहता है।
(4) वैचारिक शून्यता की शिकार होती कांग्रेस–
जिस तरीक़े से कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी कभी जनेऊधारी पंडित तो कभी टोपी पहनकर मतों की राजनीति करना चाहते हैं। वह साबित करती है, कि कांग्रेस के पास नए विचार और मोदी सरकार की नीतियों का काट नहीं है। भले ही मोदी सरकार ने 2014 में जितने दावे किए थे, वह सभी पूरे करने के हालात में नहीं। फ़िर भी उसकी नीतियों पर अवाम का अगाध विश्वास बन चुका है। जिसकी काट केंद्र से लेकर राज्य किसी भी स्तर पर कांग्रेस नहीं ढूंढ पा रही है। अगर राहुल गांधी ने अविश्वास प्रस्ताव के दौरान चर्चा में मोदी सरकार की नीतियों पर सवाल ख़ड़े किए। तो उसका जवाब भी मोदी सरकार ने उसी के बाद सदन में ही दे दिया। जिस भ्रष्टाचार का अड्डा पूर्ववर्ती सरकार में संसद बन गई थी। उसे भाजपा सरकार ने स्वच्छ बनाया है। स्वच्छ भारत मिशन, आदर्श ग्राम योजना, दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना जैसी सैकड़ों योजना मोदी सरकार ने चला रखी है। वहीं कांग्रेस के शासनकाल में रहनुमाई तंत्र का नकारापन सभी ने देखा है। खासकर यूपीए सरकार का दूसरा कार्यकाल। जिसका खामियाजा उसे अनवरत आगे भी उठाना पड़ सकता है, क्योंकि कांग्रेस उससे सीख लेकर आगे बढ़ने की न सोचकर बैसाखी ढूंढती फीर रही है। विपक्षी दलों ख़ास कर कांग्रेस, सपा और बसपा जैसी पार्टियां सिर्फ़ वोटबैंक की राजनीति करती आ रहीं हैं। इनके पास विकास का कोई फार्मूला दिख नहीं रहा। ऐसे में जनता के पास विकल्प सिर्फ़ भाजपा बचती है, क्योंकि विपक्ष अगर यह सोचें कि वह सरकार की आलोचना करके ही सत्ता तक पहुँच जाएगा। तो यह हरगिज़ संभव नहीं। बाक़ी कुछ समय का इंतजार कर लीजिए, समय कम ही शेष बच रहा 2019 चुनाव के लिए। जनता सभी का हिसाब कर देंगी।