स्वाभिमान
मैं चारण और भाट नहीं हूं,
जो दरबारों में शीश झुकाऊं।
मैं सच को कहता लिखता हूँ,
चाटुकारिता को न मैं अपनाऊँ।
कभी नही मैं लिख सकता हूँ,
झूंठी प्रसंसा को गीतों में।
कभी नही मैं जा सकता हूँ ,
राजमुकुट के अभिनन्दन में।
मैं तो सदा स्वाभिमान से जीता हूँ,
शीश नवाता हूँ भारत की रज धूलि को।
मैं केवल देश की पीड़ा का गायक हूँ,
चाह नही है पाऊं मैं उपहारों को।
मेरी केवल बस यह ही अभिलाषा है,
उपकरण बन जाऊँ माँ की पूजा का।
मैं झूंठ प्रपंच नही सीखा हूँ
मैं चारण और भाट नही हूँ।
— बाल भास्कर मिश्रा