बामुलाहिजा होशियार !बहस जारी ह
बहस तो बहस है।बहस होना ही चाहिए।बहस में ही तो खुलकर बकबक की जा सकती है।भाषण-अभिभाषण तो सदैव एकतरफा़ हुआ करते हैं।एक बहस ही है जिसमें आमने सामने दो पक्ष होते हैं और तीसरा पक्ष मजे लेता है।बहस में सिर्फ जुबान ही काम नहीं करती । बहस की तरंग दिमाग से होते हुए जुबान और फिर हाथ-पैर चलाने तक पहुँच जाती है।वह बहस ही क्या!जो केवल जुबान चलाने पर ही अवलम्बित रहे।बहस में अपने विचारों की श्रेष्ठता साबित करना होती है।एक अकेली जुबान आखिर यह सब कैसे कर सकती है!वह बेचारी अकेली अबला जान! बत्तीस नुकीले दांतों के बीच संघर्ष करते हुए अपना अस्तित्व बचाये रखती है और जब स्वयं को लगता है कि उसने जवाब देना शुरू कर दिया है तो बत्तीसी उसका सहयोग करने के लिए कभी-कभी आक्रामक हो जाती है,आखिर साथ रहने पर उनका भी तो कुछ फर्ज बनता ही है और वह सामने वाले पर बुरी तरह टूट पड़ती है।ऐसे में कई बार जुबान तो सुरक्षित रह जाती है और बत्तीसी को धूल चाटना पड़ जाती है।
वैसे जुबान चलाने का काम तो इंसान का दिमाग ही करता है।जैसा दिमाग कहेगा उसी के अनुरूप तो जुबान काम करेगी,चलेगी और दौड़ेगी।कई लोगों की जुबान कतरनी की तरह चलती है ,कभी कभी कैंची से भी तेज और धारदार!इसके विपरीत कई लोगों की जुबान अटक-अटक कर चलती है गोया कि गाड़ी के कार्बोरेटर में कचरा फँस गया हो और वह झटके ले-लेकर आगे बढ़ रही हो या फिर एक झटका खाकर बन्द हो जाए।
जुबानें तलवार की तरह जबतक मारकाट मचाती है तो तीसरे पक्ष के लिए आनन्द का संचार कर देती है लेकिन जुबानें जब पराजित होने लगती हैं और दोनों पक्षों की जुबानें लड़खड़ाने लगती है तब लगने लगता है कि बहस की पूर्णता पाने में जु़बान कमजोर साबित हो रही है तो अन्ततः हाथ-पैर ही काम आते हैं क्योंकि पूर्णानन्द की प्राप्ति के लिए अगला कदम यही हो सकता है।
कहने वाले कह सकते हैं कि बहस लड़ाई-झगड़ा या मुठभेड़ नहीं है बल्कि वाक्चातुर्य से विचारों की, अपनी बतकहिन की श्रेष्ठता सिद्ध करने की जु़बानी या दिमागी चतुराई है।ठीक है भाई,लड़ाई नहीं है लेकिन जहाँ जीत-हार और श्रेष्ठता की बात आ जाए वहाँ तो लड़ना ही पड़ता है और बन्दुक,तोप,तलवार की तरह जुबान भी तो एक हथियार ही है।जहाँ जु़बान के वार खाली जाने लगें वहाँ हाथ-पैर का इस्तेमाल करना ही पड़ता है।
बहस गांव की चौपालों पर होती है,गली-मोहल्लों में होती है, शहरों में पान की दुकानों पर होती है और यह यहीं तक सीमित नहीं है, ग्राम सभाओं से लेकर संसद तक बहस लात-घूंसों की बरसात के साथ कुर्सी-टेबल उछालकर,फेंककर,मारकर पूरी करना पड़ती है। तीर-तमंचे भी कभी-कभी बहस को निष्कर्ष तक पहुँचा के काम आते हैं।ऐसे में मीडिया द्वारा बहस का आयोजन किया जाना भी लाजमी है वह भी प्रायोजित ही तो होता है।एक मीडिया चैनल ने इसे दंगल नाम देकर समझदारी का परिचय दिया है क्योकि बहस भी जु़बानी दंगल ही तो है।इसे चाहें तो खेल मान लें या द्वंद्व या और कुछ!कुल जमा दो या दो से अधिक पक्ष का आमने-सामने होना जरूरी है।हाँ,इस बहसबाज़ी के लिए हालात देखते हुए खेल या युद्ध नियम की तरह नियम-कायदे निर्धारित किये जाने चाहिए।जिस तरह से कुछ खेल फ्रीस्टाइल होते हैं, इन्हें सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, ठीक इसी तरह कुछ कठमुल्ला बहसों को भी फ्रीस्टाइल रखा जाना समय की मांग है।जु़बान के साथ हाथ-पैर चलाने की छूट तो जरूरी है तभी तो बहस का आनन्द आएगा और टी वी चैनल्स की टी आर पी बढ़ेंगी।मीडिया के एंकर बंधु चाहें तो हेलमेट धारण कर बैठ सकते हैं क्योंकि ऐसी आयोजित और प्रायोजित बहसें भी तो मुर्गा लड़ाई या पाड़ा लड़ाई से कमतर नहीं है!इसलिए अब जब भी टी वी चैनल या संसद-विधानसभा में बहस आयोजित हों तो पूर्व घोषणा कर दी जाना चाहिए कि- “बामुलाहिजा होशियार ,बहस जारी है।”
कम से कम घोषणा होने पर आसपास बैठे और सम्मिलित लोग हेलमेट आदि धारण कर अपना सिर बचा सकें।हाँ,जनता बेफिक्री से अपने सिर की चिन्ता से मुक्त होकर इस दृष्य-श्रव्य संसार का आनन्द ले सकती है।