हास्य व्यंग्य

शायद अगली मुलाकात हो न हो……

ज्यादा प्यार उमड़ पड़ता है तो हम गले लग जाते हैं।बाहों का हार बनाकर आगोश में भर लेते हैं।दोनों ओर से भावनाओं का ज्वार मन रूपी समन्दर में हिलोरे मार रहा हो तो गले मिल लेते हैं लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि सामने वाला भाव न दे रहा हो तो गले पड़ जाना पड़ता है।वैसे आजकल गले पड़ने का जमाना है क्योंकि लोग भाव ज्यादा खाते हैं और आसानी से हाथ नहीं रखने देते! जीवन में इस दौर से सभी गुजरते हैं।हम चाहते हैं कि एक दूसरे को हग करें यानी एक दूसरे से प्रेम -मुहब्बत से रहें और गले मिलें।वार-त्यौहार और खुशियों में भी तो गले मिलने का रिवाज है।हमारे देश में तो दुश्मन को भी गले लगाने की परम्परा है।
अभी गले लगने पर बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है।क्या गले मिलना गले पड़ना है!किस परिस्थिति मे कहा जा सकता है कि नहीं भाई यह तो गले लगना है या फिर यह गले मिलना है या फिर यह गले पड़ना है।क्या जब कोई कहे कि आ गले लग जा,तभी यह गले मिलना कहा जाएगा!
अभी इन्होंने प्रधानमंत्री जी को गले मिलने के लिए आसन्दी से उठने का इशारा कर दिया तो क्या गलत किया! इन्होंने स्वयं ही अपना पप्पू होना स्वीकार कर लिया तब उन्हें मान लेना था कि इनका दिल तो बच्चा है!इन्होंने भाषण की कितनी तैयारी की होगी।सदन में कितना चीख-चीखकर अपना भाषण पेश किया, तब भी उन्हें दया नहीं आई! क्या तारीफ़ के दो शब्दों के हकदार भी नहीं बन सके! इनके साथ बड़ी ही नाइंसाफ़ी हुई है।अरे खड़े होकर न सही,ठीक पोजीशन लेकर ही गले मिल लेते।एक-दूसरे को अपमानित करने की प्रतिस्पर्धा में कौन जीता,कौन हारा,इस बात पर धूल गिरायें इस बात का भी दम निकालें कि ये गले पड़ रहे थे क्योंकि इसे गले पड़ना कैसे निरुपित किया जा सकता है लेकिन क्या करें जब बात अविश्वास की हो रही थी तो कौन किस पर विश्वास करता!
अब्दुल रहमान एहसान देहलवी ने कहा भी है कि-
“गले से लगते ही जितने गिले थे भूल गए
वरना याद थीं हमको शिकायतें क्या किया।”
अब उनके गले मिलने पर सारे गिले-शिकवे दूर कर लिये जाना थे लेकिन वे कैसे करते क्योंकि गले मिलने के पहले इन्होंने जली-कटी के साथ मिर्च-मसाला युक्त शिकायतों और खामियों का पुलन्दा जो सदन के सामने रख दिया था और तिसपर बाद में एक आँख भी प्रिया स्टाईल में दबा दी।शायद इसीलिए उनके मन में आया हो कि-
“कैसे गले मिलते हैं गले से अबके बहाराँ भूल गए
यारों ने भरपूर गलों का काम किया तलवारों से।”(वाकिफ़ जौनपुरी)
इनके गले लगने पर शायद उन्होंने सोचा हो कि-
“लो गले पड़े काँटे,क्यूँ गुलों का ख्वाहिश की।’(मोहम्मद अल्वी)
या फिर यह सोचा हो कि-
“पीठ में खंजर घोप दिया,गले लगने वालों ने।”
उनके दिमाग में यह बात भी आई हो कि-
“यूं ही गले लगाएगा,ऐसा तो संसार नहीं।”(दीपक शर्मा दीप)
इधर ये जब गले मिले और उन्होंने रिस्पांस नहीं दिया तो इन्होंने भी सोचा ही होगा कि-
“आबरु हाए क्यूँ गले न लगा,मेरे दिल में यही मलोला है।’(आबरु शाह मुबारक)
इनके गले लगने पर उन्होंने सोचा ही होगा कि-
“लोग यूँ तो गले लगाते हैं,प्यार दिल में जरा नहीं होता।”(प्रमोद शर्मा असर)
यह बात भी उनके जेहन में आई होगी कि-
“बेतकल्लुफ़ गले लगा लें हम
काश खंजर तिरी कमर से गिरे।”(रौनक टोंकवी)
मुझे लगता है कि ये गले मिलने इसलिए गए होंगे कि-
“आओ गले मिलकर ये देखें
अब हम में कितनी दूरी है।”(शारिक कैफ़ी)
खैर,राजनीति है और राजनीति में-
“गले मिलकर छुरा घोंपने का रिवाज़ है यहाँ
क्या शहर है,कायदे का दुश्मन नहीं मिलता।”
फिर भी ये गले इसीलिए मिले हों कि-
“लग जा गले कि फिर ये हसीं अवसर हो न हो
शायद फिर अगली लोकसभा में हमारी मुलाकात हो न हो।”

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009