गज़ल
ज़ुबां पे कैसे आता मेरे इश्क का फसाना,
उसे वक्त ही नहीं था जिसे चाहा था सुनाना
मेरे साथ घूमते हैं पूरी रात चाँद-तारे,
इनका भी नहीं है क्या मेरी तरह ठिकाना
आज़मा ले शौक से तू गैरों की भी वफाएँ,
कहीं भी नहीं मिलेगा मुझ सा तुम्हें दीवाना
तलाश-ए-ज़िंदगी में दर-दर भटक रहा हूँ,
तुमको कहीं मिले तो मुझको ज़रा बताना
क्या चीज़ ये जवानी तूने खुदा बनाई,
यही जागने का मौसम यही नींद का ज़माना
तेरे इश्क ने दिए हैं वस्ल-ओ-फिराक दोनों,
इक पल में आह भरना इक पल में मुस्कुराना
— भरत मल्होत्रा