हास्य-व्यंग्य : टोपी और दाढ़ी
कपड़े का आविष्कार मानव सभ्यता की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में से एक है। ये बात और है कि जिन अंगों को छिपाने के लिए कपड़ों का निर्माण हुआ था अब कपड़ों के भीतर से उन्हें उघाड़ कर दिखाना सभ्य समाज की पहचान बन गया है। समय भी कैसी-कैसी करवटें लेता है? इन कपड़ों में न जाने टोपी की रचना किस फैशन डिज़ाइनर ने की? वह नहीं जानता था कि आनेवाले समय में उसकी यह रचना मानव को अनेक धर्मों में बाँट देगी। टोपी का डिज़ाइन बदलते ही ‘इंसान’ इंसान नहीं रहेगा।
टोपी को हमारे देश में सम्मान का प्रतीक माना जाता है। किसी को ‘टोपी पहनाना’ भी बुरा है और किसी की ‘टोपी उछालना’ भी। पर यह दोनों काम सदियों से हमारे देश में बड़ी रुचि से किए जा रहे हैं। कुछ लोग तो ‘इसकी टोपी उसके सिर’ रखने में माहिर होते हैं। ऐसे लोगों से सभी डरते हैं।
टोपी और दाढ़ी में बड़ा निकट संबंध है। शरीर पर भी दोनों की स्थिति में लगभग एक बालिश्त का ही निकट अंतर होता है। किंतु दोनो की स्थिति, पारखियों को इन्हें धारण करधेवालों की औकात समझा देती है। मुझे दाढ़ीवालों से डर लगता है। कहते हैं ना- चोर की दाढ़ी में तिनका। दाढ़ीधारी के चोर होने की संभावना बनी रहती है। पिछले दशक में तो दाढ़ीवाले सरदार की छत्रछाया में ‘चिकने चोरों’ ने ‘दाढ़ीवाले चोरों’ को भी पछाड़ दिया। घोटालों का ऐसा जाल बुना कि बेचारा सरदार भी उलझकर रह गया। जिसके दाढ़ी नहीं होती उसके पेट में दाढ़ी होती है-सुना था। पर दाढ़ीवाले बाबाओं ने वर्तमान में बदमाशी के सारे रिकाॅर्ड ध्वस्त कर डाले। ना ‘आशा’ ही बचे , ना राम!
इन दिनों एक वह शख्स जिसके पेट में दाढ़ी है वह एक श्वेत दाढ़ीधारी की टोपी उछालने में रस ले रहा है। एक ‘टोपी और विशिष्ट दाढ़ीधारी व्यक्तित्व’ देश के वर्ग विशेष को दाढ़ी और टोपी के आधार पर अलग करने में पूरी ताकत लगाए हुए है।
मेरी समझ नहीं आता जिस देश में महँगाई, भुखमरी, अशिक्षा, आतंकवाद, गरीबी , नारी-शोषण जैसी समस्याएँ सुरसा की तरह मुँह फाड़े खड़ी हों वहाँ टोपी और दाढ़ी का क्या काम??
— शरद सुनेरी
वाह , करारा व्यंग्य है .
अच्छा व्यंग्य !