स्मार्ट सिटी और बेबस गौरैया की कहानी
एक दिन एक गौरैया अपनी पड़ोसन गौरैया से बोली, “बहन! कल, रघु काका, जिनके घर के छप्पर में हम कईयों के घोसले हैं, वे पास के खपरैले वाले मकान में रहने वाले, इन्द्र देव चाचा से बता रहे थे, कि ये सरकार हम लोगों के गाँव की जमीन पर जल्द ही एक स्मार्ट शहर बनाने वाली है, हमारे कई रिश्ते, नातेदारों के घोसले, इन्द्र देव चाचा के खपरैले मकान के कड़ियों में भी हैं।”
“ये स्मार्ट शहर क्या होता है बहन!” दूसरी गौरैया ने उत्सुकतावश पूछा…
पहली ने उत्तर दिया कि सुना है, “स्मार्ट शहर वो होते हैं, जहाँ बहुत ऊँची-ऊँची आकाश छूती बिल्डिंगें होंगीं, जो सब तरफ से सीसे से बन्द होंतीं हैं। उसमें रघु काका, इन्द्र देव चाचा, रामू भैया जैसे गाँव के अच्छे, भले और गरीब लोग नहीं रह पाएंगे, वहाँ बहुत धनी-धनी लोग शहरों से आकर रहेंगे, क्योंकि वे बहुत ही महंगे होंगे, उन मकानों में साधारण लोगों का रहना, वश का ही नहीं है। उसमें विलासिता और सुख-सुविधा के सभी साधन होंगे।”
“क्या उसमें हम लोगों के घोसले लायक छोटी-छोटी जगहें भी होंगी?” दूसरी ने डरते-डरते पूछा।
“नहीं बहन! इन स्मार्ट शहर के मकानों में खुद उनके माँ-बाप के लिए भी जगह नहीं होतीं, तो उसमें हमारे घोसले लायक जगह कहाँ से होगी?” पहली गौरैया अत्यन्त दुखी होकर बोली।
“तो इसका मतलब हम गाँव में ही ज्यादे सुखी और स्वतंत्र हैं?”
“बिल्कुल…”
“शहरों में एक तो हमारे रहने के लिए घोसले लायक जगह नहीं, जिन पुराने, मोटे, हरेभरे पेड़ों पर हम सुबह खेला-कूदा करते थे, वे भी सरकारें विकास के नाम पर, सड़क चौड़ीकरण के नाम पर, अँधाधुँध कटवा दे रही हैं, अब हम कहाँ बैठें ? कहाँ शरण लें ?, शहरों में पेड़ों की हरियाली की जगह ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों का जंगल बन गया है।
“शहरों से निकलने वाले गंदे नाले, फैक्ट्रियों और गाड़ियों से निकलते धुँए, ये ऊँचे- ऊँचे आकाश छूते मोबाईल टॉवरों से निकलने वाली प्राणघातक रेडिएशन किरणें, हमारी जान की आफत बन गये हैं, कहीं पीने के लिए स्वच्छ पानी भी नहीं रहा..नदी, नाले, तालाब सब कुछ इतने गंदे कि, उसका पानी पीयें, तो मर ही जायें, बहुत बार तो यहाँ कई-कई दिन तक ढंग का खाना भी नहीं मिलता।”
“शहर से दूर गाँवों में अभी भी लोगों के दिलों में हमारे लिए प्यार, दुलार और दया बची हुई है, वहाँ लगभग हरेक घरों में बूढ़ी दादी माँ लोग खाना खाते समय, हमारे लिए चावल के दाने और रोटी के टुकड़े दे देती हैं, बाहर बरामदे में एक कटोरी साफ पानी भी पीने को मिल जाता है।”
“तो बहन अब हम क्या करेंगे…?”
“चिन्ता मत करो, हम सभी भी रघु काका, इन्द्र देव चाचा और रामू भैया के साथ शहर से बहुत दूर, जहाँ ये लोग, अपने कच्चे, फूस के और खपरैले मकान में रहेंगे, वहीं हम लोग भी इनके साथ ही रहेंगे।”
सारी गौरैयों ने स्वीकृति में अपनी सिर हिलाईं और गाँव के लोगों के साथ वे खुद भी उनके साथ जाने के लिए तैयारी करने लगीं।
कुछ महिने बाद गाँव के सारे लोग शहर से काफी दूर अपना बसेरा बना लिए, सारी गौरैयां भी शहर छोड़कर, वहीं उनके हरेक घरों में कहीं न कहीं अपने लिए जगह ढूंढ़कर, अपना घोसला बनाकर सुखपूर्वक रहने लगीं।
“वहाँ न मोबाईल टॉवरों से निकलने वाली जानलेवा किरणें थीं, न खाने और पानी पीने की समस्या, न सुबह उड़ने-फुदकने के लिए हरियाली और पेड़ों की वहाँ कोई कमी, गाँव के सभी लोग हम सभी नन्हीं गौरैयों का अपने परिवार जैसे, खाने और स्वच्छ पानी का प्रतिदिन इन्तजाम कर देते हैं।”
“रघु काका ने अपने गाँव के सभी नवयुवकों से प्रतिदिन दो घंटे सुबह में श्रम कराके, एक बड़ा, गहरा तालाब, एक नीची जगह में खोदकर बनवा दिया, वह तालाब पिछले दिनों हुई एक ही जोरदार बारिश में लबालब भर गया, जिसका पानी शीशे की तरह साफ और मीठा है, उसके पानी से हम लोग भी अपनी प्यास बुझाते हैं और गाँव के सभी लोगों की पानी की जरूरत भी पूरी हो जाती है। हम लोग अपने परिवार के साथ यहाँ रघु काका और इन्द्र देव चाचा के गाँव में बहुत खुश हैं।”
” सुना है, शहरों में अब एक भी गौरैया नहीं दिखती, स्मार्ट सिटी के लोगों को अपने बच्चों को गौरैयों के बारे में, उनकी किताबों में बने गौरैया के चित्रों को दिखाकर संतोष करना पड़ता है।”
— निर्मल कुमार शर्मा
बहुत अच्छी और प्रेरक कहानी.
आदरणीय प्रियवर !
हार्दिक आभार
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