आहिस्ता
बारिश की बौछारों में जब सुबह सुबह
खिड़की खोली तो
बरामदे में शहतूत से बँधी उस
तार को देखा जिस पर बल्ब लगा
था ,जो जलता-बुझता रहता था
उस तार से एक एक करके बूँदें
लगातार टपक रही थी मगर
थोड़ा-सा रूक कर
महसूस हुआ कुछ इसी तरहा
से मेरी उम्र के बरस
गुजरें हैं आहिस्ता-आहिस्ता
एक के बाद एक जलते-बुझते