हास्य व्यंग्य

महाठगबंधन

एक गाँव था। ठगों का। ये अपने ही गाँव के लोगों को ठगते रहते।इनको देखकर और सुनकर लगता दुनिया में इनसे बड़ा आपसी शत्रु कोई नहीं होगा। हर पाँच साल में ऐसी जूतमपैजार होती कि लोग दाँतो तले अँगुली दबा लेते। पर मज़ा देखिए ना कि समय पड़ने पर ये लोग ऐसे गले मिलते कि गाँववासियों को पुरानी घटनाएँ दिवास्वप्न लगतीं। इन ठगों में एक बड़ी विचित्रता थी। कोई हाथी सवार था तो कोई सायकिल सवार। किसी को अपने हाथ की चालबाज़ी पर ही इतना भरोसा था कि उसे देवता तक को फूल अर्पित करने में शर्म आती थी। फूल प्रेमी की बात निराली थी। वह फूल बेचकर ही गाँव का विकास करना चाहता था। जो कि होता नहीं दिखता था। एक उस्ताद तो लालटेन थामे गाँववालों की आँख में धूल झोंककर सम्राट बन बैठा था। घड़ी की सुइयों से छेड़छाड़ करनेवाले, तीर-कमानवाले, दो फूलवाले ठगों की अपनी अलग दुनिया थी।
ठगी की इस अंधी दौड़ में एक बार फूल वालों के हाथ बटेर लग गई। ठग तो ठहरे -ठग! भला दूसरे का भला कैसे सोच सकते? चोर होते तो मौसेरे भाई बन जाते। उन्हें पहली बार रहीम के इस दोहे का मतलब समझ आ रहा था-
“रहीम आप ठगाइए, और न ठगिए कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय।।”
पंजेवाले ठग, जिन्हें दूसरे ठग फूटी आँख न सुहाते थे अब बायीं आँख दबादबाकर खंभा नोचते रहते थे। हाथीवाले ये सोचकर खुश थे कि मर भी गया तो क्या हुआ अपना हाथी कम-से-कम सवा लाख का हमेशा रहेगा। सायकिलवाले; सवार थे ज़रूर गरीब गाँववालों के कंधों पर अवसर मिलते ही लालटेन की रोशनी में हाथी की सवारी और हाथ के करतब का मज़ा भी ले लेते थे। एक दिन सबको लगा कि यदि एक-दूसरे को यूँ ही ठगने में लगे रहे तो ये फूलवाले हमें टोपी पहनाकर चले जाएँगे। फिर हाथवालों को हाथ मलना पड़ेगा और सब मिलकर लालटेन की रोशनी में आँखें गड़ाकर अंधों की तरह हाथी को टटोलते रह जाएँगे। फिर उन्हें एक कहावत याद आई-‘चोर-चोर मौसेरे भाई।’ अब उन्होंने गले मिलकर रहने की योजना बनाई कि वे ठग नहीं, चोरवाले फार्मूले पर चलेंगे। रहीम जी का दोहा समझने में ज़रा कठिन था। ये कहावत ठीक है। एक दिन भेल-मिलाप का ये कीड़ा इतनी ज़ोर से काटा कि फूलवाले की ‘दाढ़ी’ देखकर, हाथवाला उसी के गले जा पड़ा।
अब ठग, चोर बनकर नया गिरोह बना रहे हैं। एक-दूसरे को ठगेंगे नहीं, इस फूलवाले के घर में सेंध लगाएँगे। किसकी औकात है जो
हमारा बाल भी टेढ़ा कर ले? हमारे गिरोह का नाम होगा-“महाठगबंधन।”
तभी एक अनपढ़ गँवार बोला-“दद्दा! जो तो ठीक कही, पर हमारो सरदार….?”
अब सब सोच में हैं ठग बने या चोर??

शरद सुनेरी
15/8/18