सत्ता चरित्र
सत्ता चरित्र
है बड़ा विचित्र सत्ता चरित्र,
उजले चेहरे धुंधले होते
हम आम सुधी जन, लाख जतन कर
सच्चाई को समझ ना पाते
हाँथ रगड़ते फिर पछताते हमने क्या कर डाला
ये भी निकला मतवाला
मत लेकर धोखा देकर,
बिगड़ी भी मेरी उजाड़े,
मेरे सपने को तरसाये।।
जब वो था तब ऐसा ना था,
जब ऐसा है तब वैसा ना था,
स्व जीवन ऐसा सोचा ना था।।
अपने गुरुर की लाठी,
सत्ता चरित्र अपनाती,
काल की गर्जन भीगी बिल्ली जाने क्यों बन जाती।
सबसे अलग सबसे विचित्र,
प्रथम बात समझ ना आती,
जनता तो ठगी जाती, जानता ही ठगी जाती।।
।।प्रदीप कुमार तिवारी।।
करौंदी कला, सुलतानपुर
7978869045