राजनैतिक पराकाष्ठा व सूझबूझ के प्रतीक अटल जी
राजनैतिक पराकाष्ठा व सूझबूझ के प्रतीक अटल जी
एक प्रखर वक्ता चिन्तक पत्रकार कवि के साथ-साथ देश के विरोधी दल के लम्बे समय तक ख्यातिलब्ध राजनेता श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी का चला जाना भारत के लिए भारत की स्वस्थ राजनीति के लिए भारतीय साहित्य उसमें कविता की प्रखरता प्रभावोत्पादकता के लिए बहुत बड़ी क्षति है।जिसकी भरपाई निकट भविष्य में या कहंू दूर- दूर तक कहीं नहीं दिखती है।निधन के समाचार के बाद जिस तरह से पूरा देश उनके लिए भावुक हो रहा है।मीडिया का हर रूप उनके लिए आंसुओं से भरा पड़ा है।राजनीति का कोई भी व्यक्तित्व अथवा पक्ष हो अति संवेदनशील हो रहा है।यह सब अटल के विराट व्यक्तित्व व दीर्घकालिक प्रभाव का परिचायक है।देश के अन्दर समाज के सभी पक्ष व बाहर देशों से अनेक राजनेताओं के वक्तव्य यह दर्शाते हैं कि यह अपने लिए नहीं अपनों के लिए जीने वाले आदर्श राजनीति के उस उच्चतम फलक पर अपने को स्थापित किये थे जहां दूसरे का पहुंचना तो दूर काफी दूर तक कोई नहीं दिखता।शास्त्री जी के बाद अटल जी ही ऐसा व्यक्तित्व थे जिनका संसद के अन्दर हों या बाहर कोई विरोध न था।सब इनको नेहरू के समय से इनके अपने प्रधानपतित्व के कार्यकाल तक बड़े धैर्य से सुनते थे।आज की राजनीति में बड़े-बड़े राजनेताओं के इनके सन्दर्भ में इनके साथ के अनुभव पर बयान और टिप्पणियां इनकी अनेक विशेषताओं का ही प्रमाण हैं।श्रीमती इन्दिरा गान्धी निधन के बाद इतनी भावुकता पूरे देश में देश के सभी वर्ग-समुदाय में आज दिख रही है।उस समय मैं कक्षा सात का विद्यार्थी था बहुत से बड़ों को भी 1984 में आंसू बहाते बिलखते हुए देखा था।आज पैंतीस सालों बाद वैसा ही अनेक स्थानों पर अनेक माध्यमों से मैं देख रहा हंू।
भारतीय राजनीति के जननायक श्री अटल जी से जब किसी पत्रकार ने यह प्रश्न किया था कि आपने अपने संसदीय जीवन के इतिहास में नेहरू गांधी परिवार की तीन पीढ़ियों के साथ काम किया है।क्या अन्तर पाया है आपने तीनों में तो उनका उत्तर था कि पंडित नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक मैंने हमेशा सरकार की गलत नीतियों की मुखर आलोचना की है पर जो पंडित नेहरू संसद में बहस के दौरान मुझे देखकर लाल हो जाते थे।किसी विदेशी राजकीय मेहमान के भारत आने पर मुझे न केवल आदर से आमंत्रित करते बल्कि सम्मान से मिलवाते।इंदिरा जी ने भी आमंत्रण की परम्परा जारी रखी।पर वे वहां मुझे देखकर आक्रोश एवं उपेक्षा का भाव चेहरे पर ले आतीं।श्री राजीव गांधी ने बुलाना बन्द कर दिया।यह वाजपेयी जी का किसी पत्रकार को दिये गये प्रश्न का उत्तर मात्र न था।अपितु भारतीय राजनीति का वो दर्पण था जिसे वह देश को दिखा रहे थे।एक बार पी0 वी0 नरसिंहा राव जी ने भी इनको विपक्ष का नेता होने के बाद भी भारत का पक्ष रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भेजा था।तेरह दिन की सरकार हो या फिर तेरह महीने की उसमें इनकी राजनैतिक पराकाष्ठा व सूझबूझ ही दिखी। कहीं पर अपने को बचाते या तिगड़म करते नहीं दिखे।जैसाकि 1980 के दशक से ही आरम्भ हो गया था। कई लोग सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे।सांसद खरीद-फरोख्त का बाजार भी खुल चुके था।सरकारें गिराना आम बात हो गयी थी।उच्चन्यायालयों व उच्चतम न्यायालय ने अंकुश लगाना आरम्भ कर दिया था।
एक कवि व पत्रकार के रूप में उनकी उपलब्धिया या कहंू प्रसिद्धियां किसी परिचय का मोहताज नहीं हैं।राष्ट्रधर्म पत्रिका उनके पत्रकार रूप का गवाह रही है।वहीं उनके आरम्भिक दौर की कवितायें हों या पचास साल की आयु में लगे आपातकाल के समय लिखी जीवन की ढलने लगी सांझ जैसी कवितायें अपना महत्व रखती हैं।उन्होंने लिखा-
जीवन की ढलने लगी सांझ
उमर घट गई
डगर कट गई
जीवन की ढलने लगी सांझ।
वह किसी से कोई पाने न पाने पर शिकायत भी नहीं रखते थे ऐसा उनकी कविता अपने ही मन में कुछ बोलें में यंू दिखता है-
क्या खोया क्या पाया जग में
मिलते और बिछुडते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि डालें यादों की पोटली टटोलें।
प्रकृति से इनको बहुत प्रेम था एक बार मनाली के दृश्यों ने इनको इतना प्रभावित किया कि लिख दी कविता बुलाती तुम्हें मनाली भाव देखिए-
बर्फ ढकी पर्वतमालाएं
नदियां, झरने जंगल
किन्नरियांे का देश
देवता डोलें पल-पल।
हरे-हरे बादाम, वृक्ष पर
लदे खड़े चिलगोजे
गंधक मिला उबलता पानी
खोई मणि को खोजे।
लेनिन की समाधि देखने के बाद इनका मन कई प्रश्नों में उलझ गया था और यह गुनगुनाने लगे बन गयी कविता अन्तद्र्वन्द देखिये-
क्या सच है क्या शिव क्या सुन्दर
शव का अर्चन
शिव का वर्जन
कहंू विसंगित या रूपांतर
आज वह स्वंय इस अपनी इस कविता की भांति रूपांतरित हो गये।इसके अलावा सैंकड़ों ऐसी कवितायें हैं जिनका उल्लेख किया जा सकता पर यह सब एक लेख में संभव नहीं है।आज इसके अलावा न मैं चुप हंू न गाता हंू अपने ही मन से कुछ बोलें जंग न होने देंगे गीत नया गाता हंू और रोते-रोते रात सो गई कवितायें इनके द्वारा मुझे अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में दिनांक 05 सितम्बर 2005 के पत्र के अनुसार एक हस्ताक्षरित पोस्टकार्ड आकार के चित्र के साथ उपलब्ध करायी गई थीं।मैं उस समय उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद में कार्यरत था।इसके बाद मैंने अटल जी पर कई कवितायें लिखीं जिनको पत्र- पत्रिकाओं ने छापकर मुझे सम्मान दिया। अटल जी की अनेक लोकप्रिय पुस्तकों के मध्य उनमें से यह चयनित कवितायें मेरे लिए बड़ी ही महत्वपूर्ण हैं और काव्य साहित्य जगत के लिए भी किसी प्रेरणा स्रोत से कम नहीं।काव्य साहित्य के क्षितिज के इस सूर्य को मेरा शत-शत नमन व श्रृद्धांजलि अपनी इन पंक्तियों के साथ –
अपनी गरिमा अपने ही सिद्धांतों से
अटल थे अटल हैं और अटल रहेंगे।
सशरीर भले न हो साथ हम सबके-
सभी के दिलों में सदा अमर वो रहेंगे।।
आज वाजपेयी जी हमारे बीच से चले गये।इससे पहले काफी समय से राजनीति में सक्रिय नहीं थे और वर्तमान समय की राजनीति व राजनेताओं में संसद के अन्दर या बाहर पहले वाला या कहंू वाजपेयी वाला शिष्टाचार सौजन्यता नहीं दिख रही है।ऊपर से विरोधी मानने की प्रवृत्ति और विरोध अपराधिक स्तर तक बढ़ गया है।वकतव्य देने या बोलने में आये दिन मर्यादा टूटना आम बात हो गयी है।ऐसे में वाजपेयी जी भले ही अब हमारे बीच न हों पर उनके द्वारा स्थापित किये गये मूल्य और आदर्श हमारे लिए काफी लाभदायक हो सकते हैं।उनसे हम अपनी संसदीय मर्यादा या गरिमा को अब और गिरने से बचा सकते हैं।यही मेरे विचार से देश के लिए वाजपेयी जी को सच्ची श्रृ़द्धांजलि भी होगी।