कहां गई?
कहां गई घर के कम्पाउंडवाल में,
हरी-हरी घास लगाने की
स्वास्थ्यवर्द्धक परम्परा?
कहां गई घर के कम्पाउंडवाल के बाहर,
कम-से-कम एक बड़ा वृक्ष लगाकर
राहगीरों को ठंडी छैंयां में
आराम करने देने की
पारमार्थिक परम्परा?
कहां गई घर में बच्चे के जन्म पर,
एक या अनेक वृक्ष लगाने की
पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलती आई परम्परा?
कहां गई किसी के जन्मदिन पर,
फूलों का एक सुंदर वृक्ष देने की
सुंदरतम परम्परा?
कहां गई वृक्षों की छांवं में बैठकर,
किसी खुशी की पार्टी देने की
मधुरतम परम्परा?
अब तो बस रह गई है
घर को बहुमंज़िला बनाने की
लालसामयी परम्परा.
बहुमंज़िला इमारतों के कार-पार्किंग एरिया में
ऑफिस आदि बनाकर
मजबूरन
सड़कों पर कार-पार्क करने-करवाने की
ख़तरनाक परम्परा.
बड़े-बड़े जंगलों को काट-काटकर
बाढ़-सूखा-सूनामी आदि का वातावरण निर्मित करने की
दर्दनाक परम्परा.
जगह-जगह बड़ी-बड़ी कॉलोनियां बनाकर
हरियाली से खुशहाली की अनदेखी करने की
भयानक परम्परा.
केवल विश्व पर्यावरण दिवस पर
बड़े-बड़े नेताओं द्वारा वृक्ष लगाते समय
फोटो खिंचाकर छपवाने और फिर
सब कुछ भूल जाने की
अस्वस्थ परम्परा.
या फिर उस दिन हरे रंग के समाचार पत्र निकालकर
अपनी ज़िम्मेदारी निभा भर लेने की
दिखावे की परम्परा.
क्या कभी फिर लौट पाएगी सचमुच
हरियाली से खुशहाली लाने की
दिलखुशकारी परम्परा?
हमें अपने पर्यावरण, सभ्यता और संस्कृति की स्वस्थ परंपराओं को कतई नहीं भुलाना चाहिए, ताकि हमें यह न पूछना पड़े, कि कहां गईं जग-जीवन को सुखी-समृद्ध बनाने वाले हमारी स्वस्थ परंपराएं.