कविता
रोज़ की तरह आज सुबह भी
ले आया हूँ एक खूबसूरत आज
मजबूरियों के कत्लखाने में
कि उतारकर खाल इसकी
बोटी-बोटी कर
बेच दूँगा शाम तलक
ताकि भर सके
मेरी और मेरे परिवार की
ज़रूरतों का पेट
ये दिन………
जिसे कुदरत ने पैदा होते ही
सौंपा था मेरे हाथ में
ख्वाहिशों की चादर में लपेट कर
लेकिन मैंने कर दिया कत्ल इसका
एक बेहतर कल की आस में
कंस ने तो सिर्फ
आठ नवजात मारे थे
अमर होने की चाह में
लेकिन मैंने तो मार डाले हज़ारों आज
सिर्फ एक बेहतर कल की आस में
जालिम बादशाहों की सूची में
होना चाहिए मेरा नाम शीर्ष पर
क्योंकि मैं तो रोज़ कत्ल करता आया हूँ
और रोज़ करता ही रहूँगा
जब तक कोई आज कृष्ण बनकर
मुझे मुक्त न कर दे
एक बेहतर कल की अभिलाषा से..!
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।