ग़ज़ल
क़ीमत ज़बान की है जहाँ बढ़के जान से
है वास्ता हमारा उसी ख़ानदान से
चढ़ना है गर शिखर पे, रखो पाँव ध्यान से
खाई में जा गिरोगे जो फिसले ढलान से
पल – पल झुलस रही है ज़मीं तापमान से
मुकरे हैं सारे अब्र जो अपनी ज़बान से
काली घटाएँ रास्ता रोकेंगी कब तलक?
निकलेगा आफ़ताब इसी आसमान से
ये दौलतों के ढेर मुबारक तुम्हीं को हों
हम जी रहे हैं अपनी फ़क़ीरी में शान से
क्या-क्या न हमसे छीन गईं ये तरक्कियाँ
गुल तो हैं पर है ख़ुशबू नदारद बगान से
छू लीं बुलंदियाँ तो ये एहसास “जय” हुआ
कितनी क़रीब है ये ज़मीं आसमान से
-जयनित कुमार मेहता