ग़ज़ल
दर्द दिल का सताए तो किससे कहें।
मीत जब याद आए तो किससे कहें।
जितना नज़दीक था यार पहले मेरा,
दूर से अब बुलाए तो किससे कहें।
है ये कैसा नशा बिन पिये जब मेरे,
ये कदम लड़खड़ाए तो किससे कहें।
चांदनी रात में आके छत पे मेरी,
चांद नज़रें चुराए तो किससे कहें।
इक हंसी पर फिदा जिसकी जीवन रहा,
अब न वो मुस्कुराए तो किससे कहें।
सर्द रातों में ‘जय’ रौशनी के लिए,
जब मेरे ख़त जलाए तो किससे कहें।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’