हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – मुक्ति-पर्व

देश इस समय मुक्ति-पर्व मना रहा है। “कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” कहकर जो दिव्यात्मा संसार से कूच कर गई, एक तरफ उनकी अस्थियों को लोटों में कैद कर नदियों में प्रवाहित कर मुक्त किया जा रहा है। दूसरी तरफ कोई कैलास यात्रा कर अपनी अनन्य भक्ति को प्रमाणित करने में लगा है। किसी को लग रहा है कि टोपी पहन लेंगे तो खुदा के दरबार में अपनी सीट पक्की। मंदिरों पर मंदिर बनवाने की घोषणाएँ हो रही है। भगवान परेशान हैं कि कहाँ रहूँ? हृदय में बसाकर सीना चीरकर दिखानेवाला हनुमान नहीं दिख रहा। सब एक-दूसरे का सिर फोड़कर भगवान को अपनी पार्टी में मिलाना चाहते हैं। लगता है भगवान का किसी भी पार्टी में शामिल होने का मूढ़ नहीं।
मुक्ति के लिए युगों पहले भागीरथ महाराज गंगा जी को विष्णु के पगों से मुक्त करवा कर लाए थे। बेचारी गंगा! धरती पर आकर मैली हो गई। मुक्तिदायिनी को भी लोगों ने कहीं का नहीं छोड़ा। उसे फिर पवित्र करने की जी तोड़ कोशिशें हो रही हैं। वह करुण पुकार कर रही है-‘राम तेरी गंगा मैली हो गई। पापियों के पाप धोते-धोते।’ गंगा परेशान है कि भागीरथ बाबा उसे कहाँ फँसा गए?
ये मुक्ति-पर्व भी बड़ा अनोखा है। किसी को देश से ‘किसी पार्टी’ से मुक्त करना है। दूसरी ओर ‘किसी पार्टी’ देश को ‘किसी व्यक्ति’ से मुक्त करवाना चाहती है। बड़ी असमंजस की स्थिति है। देशवासियों की हालत उस चीरहरण करनेवाले दु:शासन के समान है जो समझ नहीं पा रहा था कि-
‘नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी है।
सारी ही कि नारी है कि सारी ही कि नारी है।’
भारत रूपी द्रौपदी किसी कृष्ण को गुहार लगा रही है कि उसे इन चांडालों से मुक्त करवाएँ। समझ नहीं आ रहा ये मुक्ति-पर्व कब तक चलेगा। हर साल देश में मुक्ति का महापर्व आरंभ मनाया जाता है -पितृ-पक्ष। जो लोग अपने बाप को जीते-जी खाने के लिए नहीं पूछते, वे कौओं में बाप तलाशेंगे। बाप की आत्मा परेशान है कि कमबख़्तों ने उसे मैला खानेवाला कौआ बना दिया। इस साल मैं भी मुक्तिपर्व मनाना चाहता हूँ । मेरी भी भगवान से प्रार्थना है कि इस मुक्ति-पर्व में मेरे भारत को मुक्त कराए- अंधविश्वास से। भ्रष्टाचार से। आतंकवाद से। भुखमरी और नारियों के शोषण से। सांप्रदायिकता और धर्मांधता से। आरक्षण और अशिक्षा से। क्या ऐसा मुक्ति-पर्व संभव है?

शरद सुनेरी
29/8/18