असली पढ़ाई
आज सुबह-सुबह मैंने एक सुविचार पढ़ा, “अमीर वह नहीं है, जिसके पास सबसे ज़्यादा है, बल्कि वह है, जिसे और कुछ नहीं चाहिए.” यह सुविचार पढ़ते ही मुझे अपनी कॉलोनी में रेड़ी पर घर-घर जाकर एक दूध बेचने वाले नौजवान की याद आ गई. हम उससे दूध तो नहीं लेते, क्योंकि वह दूध देने देर से आता है और मुझे सुबह सात-आठ बजे स्कूल जाना होता है, इसलिए हमें उससे दूध न लेने की मजबूरी है. पर, एक अच्छा इंसान होने के नाते वह मुझे जहां भी मिलता है, “राम-राम” करना नहीं भूलता. मैं भी मन में आशीर्वाद की भावना लिए उसे बड़े प्यार से, “राम-राम जी राम-राम” कहकर आगे चल देती हूं.
एक दिन दोपहर के बारह बजे मैं कीर्त्तन में जा रही थी, वह मिला और शायद फुरसत में भी था सो राम-राम कहने-सुनने के बाद उसने मेरी खैरियत पूछी. मैंने “बढ़िया” कहकर उससे उसकी खैरियत भी पूछी. उसने भी हंसते हुए कहा,”आंटीजी, आपकी दुआ से मेरी भी अच्छी कट रही है.”
फिर मैंने पूछा “बेटा आप इतनी देर से दूध देने आते हो और इतनी धूप में भी दूध बांट रहे हो, जल्दी क्यों नहीं निकलते ताकि आप जल्दी ही वापिस जा सको? इसके बाद बाकी दूधवालों के तरह आप भी और कोई नौकरी करते होगे न!”
वह बड़ी विनम्रता से बोला, “आंटीजी, मैं तो सुबह आराम से उठता हूं, आराम से दूध बांटता हूं और चैन से घर चला जाता हूं.” मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई. मैंने पूछा “इतने भर से आपका गुज़ारा हो जाता है?” अनपढ़-से लगने वाले उस नौजवान ने शायद सही ज़िन्दगी जीने के गुर अच्छी तरह पढ़ रखे थे, उसके उत्तर ने मुझे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया.
वह पहले से अधिक विनम्रता से बोला, “आंटीजी, गुज़ारे के लिए धन की नहीं, संतोष की आवश्यकता होती है. मैं इसी काम से इतना तो कमा ही लेता हूं कि रोज़ की ज़रूरतों के बाद भी आपात्काल के लिए कुछ-कुछ बचत हो ही जाती है. बाकी तमन्नाएं तो कभी समाप्त होने वाली हैं ही नहीं, जितनी बढ़ाओ बढ़ती ही चली जाती हैं.”
उसका उत्तर सुनकर मुझे अपने पापा की बचपन में दी हुई सीख कि, “संतोषी सदा सुखी”. इसी सीख को उसने अपने जीवन में कार्यान्वित किया था. आज के अधिकतम नौजवानों की तरह वह आजकल की भागदौड़ की रेस में सम्मिलित नहीं हुआ था. यही उसकी असली पढ़ाई थी.
असली पढ़ाई यह भी है-
मुश्किल राह भी आसान हो जाती है,
हर राह पर पहचान हो जाती है,
जो लोग मुस्कुरा कर कहते हैं,
मालिक तेरा शुक्र है,
किस्मत उनकी गुलाम हो जाती है.