‘गोविंदा आला रे’
चारों ओर धूम मची थी. ‘गोविंदा आला रे, आला’. गोविंदा पथक बना धूमल इस धूम से दूर अपनी मां की बीमारी के इलाज के लिए मटकी फोड़ने की धुन में रमा हुआ था. उधर नन्हे श्री कृष्ण मंदिरों के झूले में झूल रहे थे इधर धूमल मां और जीत के 25 लाख की ऊहापोह के झूले के बीच झूल रहा था.
धूमल की मां बहुत दिनों से बीमार थी, पर उनके इलाज के लिए कोई जुगाड़ नहीं हो पा रहा था. बेटे को बस नन्हे श्री कृष्ण और उनकी दही की हांडी का भरोसा था. इसलिए बहुत डर के बावजूद वह पिरामिड पर चढ़ने के अभ्यास में लगा हुआ था. उसकी टीम को कुछ इनाम मिल जाए, तो बात बने.
श्री कृष्ण जन्माष्टमी का दिन आ पहुंचा. दही हांडी की तैयारी हो चुकी थी. धूमल मां को चाय-पानी देकर हांडी फोड़ने के लिए चल पड़ा. 2-3 बार प्रयत्न करने पर उसकी टीम हांडी फोड़ने में कामयाब भी हो गई. एक बार फिर ‘गोविंदा आला रे’ की धूम मच गई. धूमल वहां रुका नहीं. कुछ गोविंदा पथक उसके पीछे यह कहते हुए भागे भी, ”इनाम तो लेता जा”, पर धूमल कहां रुकने वाला था!
”मैं बीमार मां को देखने जा रहा हूं, मेरा इनाम भी तुम लेते आना” कहकर मां को देखने चल पड़ा. मां को सूखे कपड़े लपेटते हुए देखकर धूमल की जान में जान आई. ‘गोविंदा आला रे’ कहकर वह मां से लिपट गया. मां ने भी कहा- ‘गोविंदा आला रे’. तेरा गोविंदा मुझे ठीक कर गया रे धूमल.” दोनों एक दूसरे के खुशी के आंसू पोंछते रहे.
हमेशा की तरह इस बार भी श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर दही हांडी फोड़ने का उत्सव धूमधाम से मना, गोविंदा आला रे की धूम के बीच धूमल को लगा ”प्रभु की लीला प्रभु ही जाने”. गोविंदा ने उसको भी जिता दिया, मां को भी ठीक कर दिया. सच है- ”विश्वास भी कोई चीज़ होती है.”