माँ
अपनी आँखों से
काजल उतार कर
मेरे माथे पर
टिका लगाती|
मेरे होंठों पर लगे दूध को
अपने आँचल से पोछती
होठों से प्यार की चुम्बन
देती माथे पर
शुभ आशीष की तरह |
फिर भी माँ के मन मे
नजर ना लग जाए कहीं
भय समय रहता |
भले ही माँ भूखी हो
मुझे आई तृप्ति की डकार से
माँ संतुष्ट हो जाती |
आईने मे
संवारने लगी हूँ खुद को
क्योकि मे बड़ी जो हो गई |
पिया के घर
माँ की दी हुई पेटी
जब खोलकर देखती हूँ
उसमे रखे मेरे बचपन के अरमान
जिसे संजो के रखे थे मेने गुड्डे -गुडिया
कनेर के पांचे और खाना बनाने के खिलोने |
इन्हें पाकर मन संतुष्ट
लेकिन आँखे नम
आज माँ नहीं है
इस दुनिया मे |
अपनी बेटी के लिए
आज वही दोहरा रही हूँ
जो सीखा -संभाला था
अपनी माँ से मेने कभी |
— संजय वर्मा ‘दृष्टी ‘