मौन स्वीकृति
भरी सभा में जब द्रौपदी का
हुआ था चीर- हरण
बिलखती द्रौपदी को, दिया न
किसी ने न्याय की शरण ।
अंधे राजा की सभा में
छाया था सम्पूर्ण अंधकार
साहस नहीं था किसी में
कर सके अन्याय का प्रतिकार ।
केवल बोले विदुर जी
महाराज त्यागिए पुत्र को आज
होगी बड़ी कृपा सब पर
रखिये भरत वंश की लाज ।
शूर वीरों की सभा में, एक
नारी पर हो इतना अत्याचार
ऐसे वीरों को क्या कहें
प्रश्न उठता है मन में बार-बार ।
गांधारी की ममता विवश थी
रानी होकर भी कर्तव्य न निभाया
त्याग न सकीं पुत्र को, अपितु
श्राप से अपने वंश को बचाया ।
बिलखती द्रौपदी से कहा कृष्ण ने
सम्पूर्ण नारी जाति का हुआ अपमान
मिलेगा सबको दंड अवश्य
चूर चूर होगा दुर्योधन का अभिमान ।
घायल शेरनी बन दहाड़ी द्रौपदी
धिक्कार है अर्जुन के गांडीव पर
अपमानित होता देख पत्नी को
दुष्टों पर कर न सका प्रहार ।
गदाधर भीम की तो कोई
सानी नहीं है जग में
पता नहीं कौन सा कांटा
चुभा था उनके पग में ।
महाराज युधिष्ठिर तो माने जाते
युग के धर्म अवतार
फिर कैसे सहा धर्मराज ने
अधर्म का यह व्यभिचार ।
कुरुक्षेत्र का युद्ध छिड़ा
हुआ दुष्ट कौरवों का नाश
कांप गई थी मानवता तब
देख वह भयावह विनाश ।
पर क्या पांचाली के घाव को
मिल सका था शांति का प्रलेप
क्या वह विनाश मिटा सका था
उसके मन का वह आक्षेप ?
किसी के रक्त से धुल नहीं सकता
ह्रदय में लगे अपमान का घाव
मृत्यु पर्यन्त मिल नहीं सकती
उसके मन को शांति की छाँव ।
एक प्रश्न चिन्ह बनकर आज भी
घटना, मानस पटल पर है अंकित
कब तक दुराचारियों के हाथों
मानवता होती रहेगी लज्जित ?
पूर्णतः मौलिक- ज्योत्स्ना पाॅल