पिता
शाम ढले वो कुछ अलकसाया सा था।
दिन भर की थकन से मुरझाया सा था।।
अजीब सी बेचैनी चेहरे पर तैर रही थी उसके।
जिम्मेदारियों से वो कभी ना घबराया था।।
आज एक तरफ ही उसका ध्यान था।
बच्चे परेशां क्यों थे उसके वो हैरान था।।
कभी अपने दर्द पर एक बार भी जो ना रोया था।
बच्चो के दर्द पर आज बहुत रोया था।।
अंकुरित करता रहा जीवन भर उनके लिए फसल।
भरी धूप में भी काम करने से वो कभी ना घबराया था।।
अचानक ही उसकी रूह ने उसका साथ छोड़ दिया।
ऐसा क्या सुना जो दर्द में डूबे बच्चो की छोड़ गया।।
सचमुच आज भी वो बच्चो के ही काम आया था।
पास अपने रखना ना चाहते थे बच्चे बीमार पिता को,
इसलिए उनकी खुशी के लिए उन्हें छोड़ आया था।।
— नीरज त्यागी