“अनुबन्धों की मत बात करो”
सम्बन्धों की दुनिया में,
अनुबन्धों की मत बात करो।
सपने कब अपने होते हैं,
सपनों की मत बात करो।।
लक्ष्य नहीं हो जिन राहों में,
कभी न उन पर कदम धरो,
जिनसे औंधे मुँह गिर जाओ,
ऐसी नहीं उड़ान भरो,
रंग-बिरंगी इस दुनिया में,
मत कोई उत्पात करो।
सपने कब अपने होते हैं,
सपनों की मत बात करो।।
अपनी बोली, अपनी भाषा,
सबको लगती है प्यारी,
उपवन को धनवान बनाती,
भाँति-भाँति की फुलवारी,
सबके अपने भिन्न वेश है,
ऐसा भारतवर्ष देश है।
पतझड़ की मारी बगिया में,
और न अब हिमपात करो।
सपने कब अपने होते हैं,
सपनों की मत बात करो।।
अन्न जहाँ का खाते हो,
जलपान जहाँ पर करते हो,
अपने काले कृत्यों से,
क्यों उसे कलंकित करते हो,
मानवता की प्राचीरों पर,
अब न कुठाराघात करो।
सपने कब अपने होते हैं,
सपनों की मत बात करो।।
—
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)