कविता

आए रहे थे कोई यहाँ, पथिक अजाने

आए रहे थे कोई यहाँ, पथिक अजाने;
गाए रहे थे वे ही जहान, अजब तराने !
बूझे थे कुछ न समझे, भाव उनके जो रहे;
त्रैलोक्य की तरज़ के, नज़ारे थे वे रहे !
हर हिय को हूक दिए हुए, प्राय वे रहे;
थे खुले चक्र जिनके रहे, वे ही पर सुने !
टेरे वे हेरे सबको रहे, बुलाना चहे;
सब आन पाए मिल न पाए, परेखे रहे !
जो भाए पाए भव्य हुए, भव को वे जाने;
‘मधु’ उनसे मिल के जाने रहे, कैसे अजाने !
गोपाल बघेल ‘मधु’