लघुकथा

आड़ा वक्त

आड़ा वक्त

‘क्या सोच रही है चंदा … अरे बिटिया के लिए बैठे बिठाये ही इतना बढ़िया घर वर मिल रहा है.. दान दहेज की भी मांग नही और तू है कि मना किये जा रही है! बात मान और जल्दी ही विदा कर बिटिया को।’

‘पर भैया अभी तो बिटिया आठवीं में है … पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाती तो ….’

अरी तो क्या बिटिया की कमाई खाने का इरादा कर लिया है?

‘नही नही भैया पर लड़की जात है… पढ़ लिख जायेगी तो सूझ बूझ से काम ले पायेगी और नौकरी मिल गयी तो आड़े समय में काम….’

अरी कैसी सूझबूझ? उसे कौन हिसाब किताब लगाने हैं वहां? घर सम्भालने और बच्चे पालने में पढ़ाई लिखाई का क्या काम? और शुभ शुभ बोल बिटिया पर कोई आड़ा वक्त क्यों आएगा भला… मै आज ही बात पक्की करता हूँ!

नही नही भैया … कुछ समय तो रुकना होगा ! मै गरीब ही सही पर बिटिया को बिलकुल ही खाली हाथ कैसे विदा कर दूँ?

‘मतलब क्या है री… ? पढ़ा लिखा कर तू उसको कौन सा हीरे जवाहरात साथ में देने वाली है। उसके पास साथ ले जाने को न अब कुछ है… न ही तब कुछ होगा जब पढ़ जायेगी…’

‘होगा ना भैया … उसकी शिक्षा, उसकी नौकरी, उसका आत्मविश्वास उसके साथ होगा … और सबसे बढ़कर जब दस दस रुपये के लिए उसे किसी के आगे हाथ नही फैलाना पड़ेगा तो उसका स्वाभिमान सदा सदा के लिए ज़िंदा रहेगा न भैया? मेरी तरफ से यही मेरी बिटिया का दहेज होगा… जो मै सारी दुनिया के इंकार करने के बाद भी उसे ज़रूर दूँगी।’

ये कहते हुए अमावस की रात में भी चंदा का चेहरा पूर्णिमा के चाँद की तरह ही दमक रहा था।

*डॉ. मीनाक्षी शर्मा

सहायक अध्यापिका जन्म तिथि- 11/07/1975 साहिबाबाद ग़ाज़ियाबाद फोन नं -9716006178 विधा- कविता,गीत, ग़ज़लें, बाल कथा, लघुकथा