उर की तरन में घूर्ण दिए
उर की तरन में घूर्ण दिए, वे ही तो रहे;
सम-रस बनाना वे थे चहे, हम को विलोये !
हर तान में उड़ा के, तर्ज़ हर पे नचा के;
तब्दील किए हमरा अहं, ‘सो’ से मिला के !
सुर दे के स्वर बदल के, कभी रौद्र दिखा के;
पोंछे भी कभी अश्रु रहे, गोद बिठा के !
फेंके थे प्रचुर दूर कभी, निकट बुलाए;
ढ़िंग पाए कभी रास, कभी रास न आए !
जो भी थे किए मन को लिये, हिय में वे भाए;
‘मधु’ समझे लीला प्रभु की, चरण उनके ज्यों गहे !
— गोपाल बघेल ‘मधु’