ग़ज़ल-दीवार नहीं है
ये कौन कह रहा है ख़रीदार नहीं है.
पर ये ज़मीर बिकने को तैयार नहीं है.
सुनते ही उसका नाम चमक उठ्ठी ये आँखें,
कैसे कहें कि उससे सरोकार नहीं है.
केवल क़लम के बल पे ही लड़ता वो लड़ाई,
हाथों में उसके कोई भी हथियार नहीं है.
अच्छा हुआ कि तोड़ दिए रिश्ते उसी ने,
दिल मानता अब ख़ुद को गुनहगार नहीं है.
कुछ चीज़ें ज़िंदगी से हटानी ही पड़ेंगी,
वैसे तो कोई चीज़ भी बेकार नहीं है.
ख़त मेरा इस तरह क्यों पढ़ाते हो सभी को,
ख़त मेरा ख़त है कोई ये अख़बार नहीं है.
कुछ भी हो दिल में दिखती है गुंजाइश अभी भी,
आँगन में उसके कोई भी दीवार नहीं है.
— डॉ कमलेश द्विवेदी
मो.09415474674
बेहतरीन ग़ज़ल !