देख रहा हूँ…
ग़ज़ल
कैसे कैसे वक्त के मंज़र देख रहा हूँ।।
आँगन आँगन उठा बवंडर देख रहा हूँ।।
इल्म की खातिर भेजे क्या सीख के निकले।
कलम के बदले हाथ में खंजर देख रहा हूँ।।
दुनियाँ उनकी हँसी पे मिसरे बोल रही है।
और मैं आँखों में कैद समन्दर देख रहा हूँ।।
बच्चे का रोना सुनते ही दौड़ पड़ी वो।
हुआ दर्द नींद कैसे छूमन्तर देख रहा हूँ।।
होड़ में छूने को सूरज की दौड़ा नादां।
उसी परिंदे के जलते पर देख रहा हूँ।।
जिसकी परवाह कभी न की बेज़ार रहा मैं।
उसके जाते ही बिखरा घर देख रहा हूँ।।
तोड़ के पिंजरा कैदी भागा था लेकिन।
वो पिंजरा अब उसके अंदर देख रहा हूँ ||
जीती सारी ज़मीं ‘लहर’ था वक्त से हारा।
लौटा था किस हाल सिकन्दर देख रहा हूँ।।