पल पल कही आँखों ने….
ग़ज़ल
पल पल कही आँखों ने तो बातें हज़ार थीं।।
तू लफ्ज़ लफ्ज़ उतरा मै लफ़्ज़ों के पार थी।।
मेरी कलम की स्याही की रंगत तू है मगर।
तू कतरा कतरा बिखरा तो मै भी बेशुमार थी।।
कैसे हिसाब तेरे मेरे दरमियाँ का हो।
तू हर्फ़ हर्फ़ संवरा मै भी पन्ने हज़ार थी।।
तुझको खुदा बनाया तो क्यों खुद पे पशेमाँ हों।
ग़ालिब का तू मिसरा मै ग़ज़ल ए शहरयार थी।।
रिश्ते की गहराई भला अब क्या कोई नापे।
पल भर था पंछी ठहरा औ शज़र पर बहार थी।।
कितनी कोई जिरह करे दलील दे कितनी।
उसकी फ़क़त मुस्कान में गज़ब की धार थी।।
रखी हैं सब बातें ‘लहर’ तेरी कुछ इस तरह।
चन्दा के पास रौशनी जैसे उधार थी।।