युग पुरुष
“युग-पुरुष “
तपके सोना जब कुंदन हुआ
जग में उसका वंदन हुआ
तपने का दर्द तो वही जाने
युगों तपे जो ऐसी चमक पाने।
समय बड़ा था वो कठिन
चारों ओर थी लपटें भीषण
धैर्य से कर सामना आग का
लिखा भविष्य अपने भाग का।
रूका नहीं वो किसी भय से
भय हारकर हटा पथ से
रहा ‘अटल’अपने निश्चय पर
कर भरोसा अपने साहस पर।
सत्य रथ पर होकर सवार
कर्मयुध्द में हुआ निछावर
तन-मन से लड़ाई लड़ गया
जग में कर्मयोगी कहलाया ।
समस्याओं की कभी उड़ी धूल
कभी बाँधाओं के बींधे शूल
खड़ा रहा सदा पर्वत बनकर
आगे बढ़ा सिंह सा गर्जना कर।
लगा माथे पर कलंक का टीका
कर्म पथ से फिर भी न डिगा
सत्कर्मों से किया स्वयं को साबित
हुआ तब जीवन वृक्ष पल्लवित ।
आये चाहे जितनी कठिन परीक्षा
मांगी नहीं कभी दया की भिक्षा
ज्वालामुखी सा जला सारा जीवन
हुए साकार तब देखे जो स्वपन।
आलस्य,लोभ से था दूर जीवन
पवित्रता से भरा था अंर्तमन
देशहित का सदा गाया गीत
देश ही था उनका अभिन्न मीत।
सामने आया जो विघ्न बनकर
उड़ी हस्ती उसकी धूल बनकर
विजयी पताका फिर फहराया
उस युग क”युग-पुरुष”कहलाया ।🙏🙏🙏
स्वरचित-ज्योत्स्ना पाॅल
मौलिक रचना
महान राजनीतिज्ञ चाणक्य जी को समर्पित 🙏