हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – झाड़ू की व्यथा

हिन्दी दिवस पर एक प्रचलित कहावत दिमाग में उँगली कर रही है- घूरे के दिन फिरना, यानि “अच्छे दिन आना।” देखिए ना आजकल ‘उस’ मुहावरे का अर्थ भी ‘यह’ मुहावरा बन गया है। इसी को कहते हैं समान संतति की उत्पत्ति का सिद्धांत। पिछले चार सालों में घूरे के दिन कितने फिरे, पता नहीं? किंतु कूड़ा साफ करनेवाली झाड़ू के दिन ज़रूर फिर गए। बेचारी! वैक्यूम क्लिनरों के आ जाने से अपने को उपेक्षित समझने लगी थी। कुछ झाड़ुओं के संगठन ने तो आरक्षण की माँग करने की सोच ली थी। वह तो भला हुआ कि प्रधानमंत्री जी ने झाड़ू को सहारा दे दिया। वरना चरखे के बाद झाड़ू, महान क्रांति की प्रतीक बन जाती। डूबनेवाले को तिनके का सहारा होता है सुना था लेकिन झाड़ू का सहारा लेकर झाड़ू छाप पार्टी के नेता भी तू से तुम, तुम से ‘आप’ और आप से मुख्यमंत्री बन गए। ऐसी झाड़ू चली राजधानी में कि-सब साफ!!!
पिछले चार-पाँच सालों में झाड़ू के उत्पादन में रिकाॅर्ड वृद्धि हुई। उसका मूल्य बढ़ा। घर में जो झाड़ू बीस रूपये में आती थी सरकारी नौकरी मिलने पर वह पचास की हो गयी। जो लोग घर में अपनी नाक दूसरों से छिनकवाते थे, वे तक नयी झाड़ुओं के साथ फोटो खिचवाते नज़र आए। यकीन मानिए साहब! जब साहब सूट पहन कर और मैम लिपिस्टिक लगाकर जब कार्यालयों के कमरों और सड़कों पर झाड़ू के साथ थिरकतीं तो बैले डांस की नयनाभिराम छटा का सुख मिल जाता। सुंदरी मैम के हाथों में झाड़ू देखकर मनचले आहें भरते-हाय!हम झाड़ू क्यों न हुए? गाँव-देहातों और गली कूचों में उपेक्षित जीवन व्यतीत करनेवाली ‘झाड़ू’ आज अंतर्राष्ट्रीय गगन पर दैदीप्यमान है। इसे ही तो कहते हैं-अच्छे दिनों का आना या घूड़े के दिन फिरना।
सबसे जोरदार झाड़ू तो सरकारी कार्यालयों में लगी। कचरा साफ तो नहीं हुआ पर स्वच्छता-बजट ने तिजोरियों की सफाई जम से की। साहब के घर के गंदे बाथरूम का जीर्णोद्धार हो गया, सफाई अभियान सफल हुआ। मैम आईं सज सँवर कर।
साथ में कुछ छोटे अधिकारियों को बटोरकर कुछ स्थानों पर झाड़ू चलाया। बीस हजार का मामूली खर्चा हुआ। पंद्रह दिन पहले तक छोटे बाबू के इलाज के लिए फंड में एडवांस के लिए राशि नहीं थी। बेचारा खाँस-खाँसकर कल दुनिया से कूच कर गया। स्वच्छ भारत अभियान सफल हुआ।
विद्यालयों में गुटका, पान, तंबाकू खाकर यहाँ-वहाँ थूकनेवाले शिक्षकों ने बच्चों को सफाई का महत्व समझाया। प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों ने जिन नामों को प्रसाधन कक्ष की दीवारों से मिटाया था, उन प्रेमियों ने फिर अपनी मेहबूबाओं के साथ ‘भित्ती-गठबंधन’कर लिया। कोने में दुबकी झाड़ू सब देखती रही।
झाड़ू का सम्मान चार सालों बहुत बढ़ा। उसकी फोटो गाँधी जी के साथ जो छपती है। इस देश में गाँधी जी के साथ फोटो खिंचवानेवाला महान माना जाता है। बापू स्वच्छता को ईश्वर के समतुल्य मानते थे। सारा देश उनको याद कर झाड़ू लगा रहा है। फोटो छप रही है। झाड़ू का उत्पादन आसमान पर है, पर बेचारी झाड़ू नीचे थी, नीचे है और नीचे ही रहेगी फिर वह बीस रूपए की हो या बीस हजार की।

शरद सुनेरी

One thought on “व्यंग्य – झाड़ू की व्यथा

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा , बहुत सुन्दर व्यंग्य . आप बहुत अछे व्यंग्य लिखते है , मज़ा आ जाता है .

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