चिता
चिता
एक कडवा सच है
गरीब-अमीर सबके लिए
परन्तु –
आश्चर्य… महाआश्चर्य
अनजान बने बैठे हैं सब
उठती लपटों से /
उढ़ते धुंए से /
मुट्ठी भर राख से |
रोज जल रहीं हैं
लाखों चिताएं
छोटे-बडे, गरीब-अमीर
सब लकडियों अथवा विद्युत हीटर में
अपनी कंचन सी काया लिए
हो रहे हैं खाक!
फिर भी फडफडा रहे हैं /
अकड पे अकड दिखा रहे हैं
भूलकर चिता
बूढ़े भी सेज सजा रहे हैं |
जिंदगी का आखिरी सच है
चिता…
ए मनुज! तू जान ले /
पहचान ले
इस सच को…
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा