समर्पण
“समर्पण”
मैं नदी की तरह,पूर्ण
समर्पण से बहती रही
तुम लहरों की तरह
मुझे स्पर्श कर चल गये ।
मैं तुम्हारी यादों को
मन में सहजती रही
तुम सब कुछ भूलकर
आगे की ओर बढ़ गये ।
एक पीड़ा का दंश
रात दिन मैं सहती रही
तुम बेखबर अपने रास्ते चले गये ।
मैं जिसे नियति मानकर
सब कुछ स्वीकारती रही
तुम अपने अहंकार में
नियति का लेख झुठलाते गये ।
मैं निश्छल, निष्कपट
आगे की ओर बहती रही
तुम किनारे से टकराकर
चूर चूर होकर बिखर गए ।
ज्योत्स्ना के कलम से
मौलिक रचना