कविता

समर्पण

“समर्पण”

मैं नदी की तरह,पूर्ण
समर्पण से बहती रही
तुम लहरों की तरह
मुझे स्पर्श कर चल गये ।
मैं तुम्हारी यादों को
मन में सहजती रही
तुम सब कुछ भूलकर
आगे की ओर बढ़ गये ।
एक पीड़ा का दंश
रात दिन मैं सहती रही
तुम बेखबर अपने रास्ते चले गये ।
मैं जिसे नियति मानकर
सब कुछ स्वीकारती रही
तुम अपने अहंकार में
नियति का लेख झुठलाते गये ।
मैं निश्छल, निष्कपट
आगे की ओर बहती रही
तुम किनारे से टकराकर
चूर चूर होकर बिखर गए ।

ज्योत्स्ना के कलम से

मौलिक रचना

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]