“मुक्त काव्य”
जी करता है जाकर जी लू
बोल सखी क्या यह विष पी लू
होठ गुलाबी अपना सी लू
ताल तलैया झील विहार
सुख संसार घर परिवार
साजन से रूठा संवाद
आतंक अत्याचार व्यविचार
हंस ढो रहा अपना भार
कैसा- कैसा जग व्यवहार
होठ गुलाबी अपना सी लू
बोल सखी क्या यह विष पी लू॥
डूबी खेती डूबे बाँध
झील बन गई जीवन साध
सड़क पकड़ती जब रफ्तार
हो जाता जीवन दुश्वार
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में
बैठा है पालक करतार
कहाँ- कहाँ नैवेद्य चढाऊँ
किसकी गाऊँ किस दर जाऊँ
कैसे इसका जीवन जी लू
बोल सखी क्या यह विष पी लू……
सुघर गाल पर राख मलू री॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी