ग़ज़ल
दिल को’ जिसने बेकरारी दी वही बेताब था
जिंदगी के वो अँधेरी रात में शबताब था |
मेरे जानम प्यार का ईशान था, महताब था
चिडचिडा मैं किन्तु उसमे तो धरा का ताब था |
स्वाभिमानी मान कर खुद को, गँवाया प्यार को
सच यही, मैं प्यार में उनके सदा बेताब था |
आग को मैं था लगाता, बात छोटी या बड़ी
आग को ठंडा किया करता, निराला आब था |
शब कटी बेदारी’ में, बीते नहीं दिन चैन से
आँख में जो अश्क था दिल का वही सैलाब था |
याद है तुमसे मिला मैं, आज तक भूला नहीं
इल्तफाते नाज़ की सौगात वो नायाब था |
लंका’ से ओखी उठी, फिर केरला गुजरात तक
शीत मौसम में उठी आँधी बनी गिर्दाब था |
जिंदगी की नाव, मौजों में रही वो काँपती
डूबना था नाव को, पानी जहाँ पायाब था |
रोज उनकी मुझसे’ आखें चार का था सिलसिला
मेरे’ घर की खिड़की’ उनके सामने का बाब था |
जन्म से इंसान सब, इंसानियत ही धर्म है
मज्हबीयत मानना ‘काली’ खुदा इज्राब था |
शब्दार्थ :
शबताब=अँधेरे में चमकने वाले ,जैसे चाँद ,तारे
ताब= सहनशीलता, बेदारी’=जागरण
इल्तफाते नाज़ =अदा से कनखियों से देखना,
गिर्दाब=पानी का भँवर, बाब = दरवाज़ा
इज्राब = अवज्ञा करना, आदेश न मानना
कालीपद ‘प्रसाद’