क्या करे आदमी…
कहां राजपथों पर कुलांचे भरने वाले हाई प्रोफोइल राजनेता और कहां बाल विवाह की विभीषिका का शिकार बना बेबस – असहाय मासूम। दूर – दूर तक कोई तुलना ही नहीं। लेकिन यथार्थ की पथरीली जमीन दोनों को एक जगह ला खड़ी करती है। 80 के दशक तक जबरन बाल विवाह की सूली पर लटका दिए गए नौजवानों की हालत बदहाल अर्थ व्यवस्था में कार्यभार संभालने वाले राजनेताओं जैसी होती थी। जिनके लिए आगे का रास्ता तलवार की धार पर चलने जैसा होता था। यानी कमाई सिफर लेकिन सुरसा की तरह मुंह फैलाता भारी खर्च। बेचारा असमय शादी की वेदी पर चढ़ा नौजवान सोचता… अब मैं फिजूलखर्ची बिल्कुल नहीं करूंगा। पान – सुर्ती बंद। मोपेड पर घूम कर मौज – मस्ती बंद … अब बस साइकिल की सवारी। दोस्तों के साथ यारबाजी बंद। खर्च की कौन कहे आय बढ़ाने की सोचूंगा।
लेकिन जल्द ही वह बेचारा नौजवान परिस्थितियों के आगे सरेंडर कर देता है और एक दिन दिल्ली – मुंबई जैसे महानगरों की अंधेरी गलियों की राह पकड़ लेता है। क्योंकि खर्च कम करने के उसके तमाम नुस्खे किसी काम के साबित नहीं होते और खजाना भरना क्या इतना आसान है। बिल्कुल जबरिया विवाह के शिकार नौजवानों जैसी हालत बेचारे हमारे राजनेताओं की भी नजर आती है। किसी देश का हुक्मरान हो या छोटे से गांव का प्रधान। सभी के सामने एक ही सवाल … आय बढ़ाना है खर्च घटाना है। कुछ दिनों तक इस पर अमल होता भी नजर आता है, लेकिन जल्द ही पुरानी स्थिति फिर लौट आती है।
मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक इस समस्या से परेशान रहते हैं। कार्यभार संभालने के बाद के कुछ दिनों तक हर तरफ एक समान बातें सुनने को मिलती है। जनाब एसी में नहीं रहेंगे… गाड़ियों का काफिला कम रखेंगे… 16 – 16 घंटे काम करेंगे… फिजूलखर्ची बिल्कुल बर्दाश्त नहीं की जाएगी। मातहतों का चाय – नाश्ता सब बंद वगैरह – वगैरह। लेकिन समय के साथ आहिस्ता – आहिस्ता ऐसी आवाजे मद्धिम पड़ने लगती है। फिर इस पर चर्चा तक बंद हो जाती है। सब कुछ पहले जैसा चलने लगता है। जनता भी समझ जाती है कि बदहाल अर्थ – व्यवस्था में सब कुछ ऐसे ही चलने वाला है।
छात्र जीवन से लेकर अब तक न जाने कितनी ही बार यह सिलसिला देख चुका हूं। लेकिन हाल में पड़ोसी देश के नए हुक्मरान का हाल देख कर सचमुच हैरत हुई। बिल्कुल जबरिया विवाह का शिकार बने नौजवान की तरह। जिसे आगे का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा। क्योंकि शान ओ शौकत में पले – बढ़े और ग्लैमर की दुनिया में कुलांचे भरने वाले जनाब को विरासत में बदहाल अर्थ – व्यवस्था मिली है। मैं पड़ोसी देश के उस नए प्रधानमंत्री को करिश्माई और महाबली समझता था। जो क्रिकेट की दुनिया की तरह राजनीति के पिच पर भी कमाल दिखा सकता है। लेकिन जनाब तो बिल्कुल असहाय नजर आते हैं। बेचारे अपने पूर्ववर्ती की कारें और भैंसें तक बेचने को तैयार हैं। लेकिन जानकार इससे हालत में सुधार की ज्यादा उम्मीद नहीं जता रहे। आखिर कुछ कबाड़ बेचकर कितनी रकम आ पाएगी। तिस पर विदेशी कर्ज की तलवार सिर पर अलग लटक रही है।
सोचता हूं फिर आखिर रास्ता क्या है। क्यों किसी नगर के सभासद से लेकर विदेश के प्रधानमंत्री तक के सामने आर्थिक परिस्थितियों का रोना रोने की नौबत आती है। फिर ऐसा क्या होता है कि अचानक बदहाल अर्थव्यवस्था की शिकायत बंद हो जाती है । जो सरकार या राजनेता हर समय तंग माली हालत का रोना रोते रहते हैं, वहीं अचानक चुनाव के समय इतने दरियादिल कैसे हो जाते हैं। क्या उनके हाथों में अचानक कोई कारू खां का खजाना आ जाता है।
अपनी शंकाओं के निवारण के लिए मैं एक बड़े नेता के घर जा रहा था, जहां मुझे अपनी शंकाओं का जवाब पूछे बगैर ही मिल गया। क्योंकि नेताजी अपने कार्यकर्ताओं से दो टुक कह रहे थे जिसका लब्बोलुआब यही था कि आजकल जनता को इस बात से कोई मतलब नहीं कि कौन नेता भ्रष्ट है और कौन नहीं। जनता सिर्फ शांति से जीवन यापन करना चाहती है। यदि हम इतना योगदान दे सकें कि जनता सहज – सरल तरीके से रह सके तो यही काफी होगी। मुझे लगा नेताजी ईमानदारी से सच्चाई बयां कर रहे हैं। मैं उनसे बगैर मिले और कुछ पूछे लौट आया।
— तारकेश कुमार ओझा