गज़ल
साथ पाया तो लगा बेकार चाहत खा गई
बहकते से हो नशा सी सोच आदत खा गई|
हक जमा ज़ाने सजावट में राहत ला गई
फूल से मासूम बच्चों को भी गुर्बत खा गई|
देश की सुरक्षा बनी है अहमियत को आकते
भूल भटके फायदा सोचे बग़ावत खा गई|
कचहरी में जब खड़े जो दोष पाये से रहे
ज़ाच पाते वो सभी देखे विरासत खा गई |
जोड़ पैसों की इज़ाफा से तिजारत आ गई
खोज़ में सब कायदे लेकर इनायत खा गई |
जिंदगी मतलब लिये खुद ही सभी कुछ पा गई
देख सबसे वो अलग सोचें इमारत खा गई|
— रेखा मोहन