मानव ईश्वर का ही रूप है
मानव के अंदर स्थित आत्मा परमात्मा का ही रूप है यह सर्व विदित है। भगवान ने जीव को अपनी ही ताकत प्रदान की है। जीव सोचता है की काश मुझे भगवान जैसे ही शक्ति मिलती तो मैं बहुत कुछ कर सकता था लेकिन हैरानी होती है ये बात सुनकर की हम सशक्त होने पर भी, बुद्धिमान होने पर भी,कर्मठ होने पर भी, अपने आप को कमजोर समझते हैं। हमने अपने आप को छोटी से सोच के दायरे मे बंदकर लिया है।महात्मा बुद्ध ने कहा था हमें इस एक जन्म में हजारों जन्मों जितना कार्य करना हैं। भगवान ने हमारे अंदर असीम शक्तियाँ दी हैं। सोचने विचारने की विवेकपूर्ण बुद्धि हमें दी है।
मोटर कंपनी के संस्थापक हेनरी फोर्ड कहा था कि यदि मेरी गाड़ियों की फ़ैक्ट्री जल जाए तो मुझे कोई गम नहीं बस मुझे मेरी टीम मिल जाए तो मैं पहले से भी दुगना कार्य कर सकता हूँ। एक महात्मा जी ने कहा कि जीव ईश्वर का ही अंश है। जो गुण ईश्वर में हैं। वे सब गुण जीव में भी मौजूद हैं तो सुनने वालों में से एक ने पूछा, बाबा ! ईश्वर तो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है पर जीव तो अल्पज्ञ और अल्प सामर्थ्य वाला फिर इस भिन्नता के रहते एकता कैसी ? यह सुनकर महात्मा जी मुस्कराए और कहा- एक की संख्या के बाद अनेक शून्य लगाकर बड़ी से बड़ी संख्या पाई जा सकती है, पर यदि उस एक को मिटा दिया जाए, तो शून्यों का कोई मूल्य नहीं रहता। उसी प्रकार जब तक जीव (मनुष्य) एक-स्वरूप ईश्वर के साथ युक्त नहीं होता। तब तक उसकी कोई कीमत नहीं होती।
जगत में सभी को ईश्वर के साथ जुड़ने पर ही मूल्य प्राप्त होता है। जब तक वह मूल्य प्रदान करने वाले ईश्वर के साथ संयुक्त रहकर उन्हीं के लिए कार्य करता है। तब तक उसे अधिकाधिक श्रेय प्राप्त होता रहता है। इसके विपरीत जब वह ईश्वर की उपेक्षा करते हुए अपने स्वयं के गौरव के लिए बड़े-बड़े कार्य सिद्ध करने में जुट जाता है, तब उसे कोई लाभ नहीं मिलता।
ईश्वर और जीव का बहुत ही निकट का संबंध है। जैसे लोहे और चुंबक का संबंध। लेकिन ईश्वर जीव को आकर्षित क्यों नहीं करता? जैसे लोहे पर बहुत अधिक कीचड़ लिपटा हो, तो वह चुंबक से आकर्षित नहीं होता। उसी तरह जीव मायारूपी कीचड़ में अत्यधिक लिपटा हो, तो उस पर ईश्वर के आकर्षण का असर नहीं होता। फिर जिस प्रकार कीचड़ को जल से धो डालने पर लोहा चुंबक की ओर खिंचने लगता है, उसी प्रकार जब जीव प्रार्थना और पश्चाताप के आंसुओं से माया के कीचड़ को धो डालता है, तब वह तेजी से ईश्वर की ओर खिंचता चला जाता है।
जीवात्मा (मनुष्य) और परमात्मा (ईश्वर) का योग वैसा ही है, जैसे घड़ी का छोटा कांटा और बड़ा कांटा। दोनों घंटे में एक बार मिलकर एक हो जाते हैं। दोनों परस्पर संबद्ध तथा एक-दूसरे पर आश्रित हैं। यद्यपि साधारणतया दोनों अलग प्रतीत होते हैं, फिर भी अनुकूल अवस्था प्राप्त होते ही वे एक हो जाते हैं। जिस प्रकार जल प्रवाह में एक लकड़ी अड़ा देने से जल के दो भाग हो जाते हैं, उसी प्रकार एक अखंड परमात्मा माया के कारण जीवात्मा और परमात्मा के रूप में बंटा हुआ प्रतीत होता है। पानी और बुलबुला वस्तुत: एक ही है। बुलबुला पानी में ही उत्पन्न होता है, पानी में ही रहता है और पानी में ही समा जाता है। उसी प्रकार जीवात्मा और परमात्मा वस्तुत: एक ही हैं। उनमें अंतर यह है कि एक सीमित है, तो दूसरा अनंत।
अनंत ईश्वर को जानना नमक के टुकड़े का समुद्र की गहराई नापने जैसा प्रयास है। वह घुलकर विलीन हो जाता है। इसी प्रकार जीव भी ईश्वर की थाह लेने, उसे जानने जाता है, तो अपना पृथक अस्तित्व खो देता है और ईश्वर के साथ एकरूप हो जाता है।
मनुष्य की देह हांडी की तरह है और मन, बुद्धि, इंद्रियां पानी, चावल और आलू। हांडी में पानी, चावल और आलू डालकर आग पर रख देने से वे गर्म हो जाते हैं और अगर कोई उसे हाथ लगाए, तो उसका हाथ जल जाता है। वास्तव में जलाने की शक्ति हांडी, पानी, चावल या आलू में से किसी में नहीं है। वह शक्ति तो उस आग में है, फिर भी उनसे हाथ जलता है। इसी प्रकार मनुष्य के भीतर विद्यमान ईश्वरीय शक्ति के कारण ही मन, बुद्धि, इंद्रियां कार्य करती हैं और जैसे ही इस शक्ति का अभाव हो जाता है, वे निष्क्रिय हो जाती हैं।
जीवन ईश्वर है या ईश्वर जीवन, इस प्रश्न पर ताओ धर्म के दार्शनिक बहुत समय तक विचार करते रहे और अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जीवन मनुष्य के लिए ईश्वर का सर्वोपरि उपहार है। इसकी गरिमा इतनी बड़ी है जितनी इस संसार में अन्य किसी सत्ता की नहीं। इसलिए उसे ईश्वर के समतुल्य माना जाय तो इसमें कुछ भी अत्युक्ति न होगी।
ईश्वर की झाँकी जीवन सत्ता की संरचना और संभावना को देखकर की जा सकती है।
यदि उसकी ठीक तरह उपासना की जा सके तो वे सभी वरदान उपलब्ध हो सकते हैं जो ईश्वर के अनुग्रह से किसी को कभी मिल सके हैं। यह प्रत्यक्ष देवता है। हमारे इतना समीप है कि मिलन से उत्पन्न असीम आनन्द की अनुभूति अहर्निशि की जा सके।
जीवन का उद्देश्य है, अपने अन्तराल में छिपे दिव्य का, अद्भुत का, सुन्दर का, दर्शन करना। उस ईश्वरीय जीवन के साथ जोड़ देना जो इस ब्रह्माण्ड की आत्मा है। पूर्ण है और वह सब है जिसमें मानवी कल्पना से भी कहीं अधिक सौन्दर्य का- सुखद का- सागर लहराता है।
ईश्वर को समझना है तो हमें जीवन को समझना होगा। ईश्वर को पाना है तो जीवन को प्राप्त करना होगा। हम जीवन रहित जिन्दगी जीते हैं। इससे आगे बढ़ें, गहरे घुस कर निर्मल बने और उस महान अवतरण को प्रतिबिम्बित करें जो प्रेम के रूप में आत्म सत्ता के अन्तराल में आलोक की एक किस्म जैसा विद्यमान है। आत्मा को दिव्य से ओत-प्रोत करने की साधना से ही वह सब प्राप्त हो सकता है, जिसे जीवन का लक्ष्य और वरदान कहा गया है।
मानव भौतिक संसार में डूब कर उस परम सत्ता की शक्तियों को भूल जाता है। दुखी होता है। निराशा में डूबा रहता है। जिस दिन मानव को यह ज्ञान हो जाता है कि वह परम शक्ति सदैव हमारे साथ है। हमारे अंतर में है। उस दिन मानव देवत्व को प्राप्त हो जाता है। एक पवित्रता आ जाती है और वह मुश्किल से मुश्किल कार्य को करने के लिए आगे बड़ जाता है। प्रत्येक अच्छे काम में ईश्वरीय शक्ति मानव के साथ रहती है। प्रत्येक पुण्य कार्य को ईश्वर स्वयं न करके अपने ही स्वरूप मनुष्य से करवाता है। हम सब अपने भीतर की परम शक्ति को पहचान कर उच्च कोटि के कार्यों में संलग्न हो।
— निशा नंदिनी