क्या मिला!
जो दुनिया मेंआया है उसे जाना ही है, यह नियम अटल है. उसकी भी सांसें उखड़ रही थीं. बुझने से पहले दीपक की लौ कुछ अधिक ही फड़फड़ाती है, उसकी स्मृति भी कुछ अधिक स्पष्ट हो चली थी.
”भगवान ने मुझे मानव देही दी, सरकार ने आरक्षण का संबल थमा दिया था, माता-पिता ने जरूरत भर का पढ़ा दिया था, बड़ी बहिन शिक्षा विभाग में कदम रखकर उच्च पद पर पहुंच गई थी, मुझे और क्या चाहिए था! पर मैंने क्या किया?” उसके अंतर्मन की निःशब्द ऊर्मियां हिलोरें ले रही थीं.
”18 वर्ष की होते ही मैं भी उसी विभाग में आ गई थी. बहिन के अधिकारों का सहारा था ही, उसी के परामर्श से काम करती गई और जल्दी-जल्दी पदोन्नति भी पाती गई और विभाग के तमाम अधिकार भी, लेकिन मैं संतुष्ट कहां हो पाई थी?” अंतर की कचोट जारी थी.
”जिसका जैसे हक मार सकूं, मारने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं होती थी. पहली बात तो यह कि कोई शिकायत करने जा ही नहीं रहा, फिर संरक्षण के लिए मेरी बहिन जो बैठी थी!” उसका अंतर मानो सुलग रहा था.
”सुना था ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती, मेरे साथ भी यही हुआ. फुड पाइप के कैंसर ने मुझे जकड़ लिया था. इलाज का खर्चा तो सारा सरकार मुहय्या करवा रही थी, लेकिन खाना तो मुझे खुद ही खाना था न! पर खाऊं कैसे? फुड पाइप मुझे इजाजत दे, तब न खाऊं! प्रधानाचार्या के अधिकारों से सुसज्जित मैं स्कूल में केवल जूस-पानी ही पी सकती और घर जाकर किसी तरह नली से तरल खाद्य पदार्थ ले पाती! अपनी मातहत अध्यापिकाओं से लूट-खसोट तब भी जारी रही. किसी में उफ़्फ़ तक करने की हिम्मत नहीं थी, पर अब तो लग रहा है, मेरी सांसों ने ही हमेशा के लिए हड़ताल कर दी है!” वह सुबकने-सी लगी थी.
इधर उसकी देह अग्नि में धू-धू करके जल रही थी, उधर उसके पति मन में कह रहे थे-
”जिंदगी भर लूट-खसोटकर मेरी अंतरात्मा मुझे कचोटती रही. इतना सब जमा करके आखिर मुझे क्या मिला!” उसके आखिरी शब्द थे.
आदरणीय बहन जी मैं प्रेमचंद जी के कथन से सहमत हूँ कि किसी व्यक्ति के अंतिम समय
में वह अपने कुकर्मों-दुष्कर्मों-बेइमानियों आदि को पश्चाताप की अग्नि में जलाकर शुद्ध हृदय से परमात्मा के पास जाता है. इसी कथन को दर्शाती यह कहानी अत्यंत सशक्त बन पड़ी है ।
बहुत सुन्दर, बहुत बधाई
प्रिय ब्लॉगर रविंदर भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि जीवन के यथार्थ को दर्शाती यह लघुकथा आपको बहुत अच्छी और सशक्त लगी. प्रेमचंद का साहित्य यथार्थोन्मुखी आदर्शवाद पर आधारित होने के कारण आज भी प्रासंगिक है. वे न यथार्थ से मुंह मोड़ते हैं, न आदर्श का पल्लू छोड़ते हैं. आदर्श का पल्लू छोड़ने पर सब मटियामेट हो जाएगा. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
हिंदी के लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार प्रेमचंद जी ने अपनी अनेक कहानियों में लिखा है, कि किसी व्यक्ति के अंतिम समय में वह अपने कुकर्मों-दुष्कर्मों-बेइमानियों आदि को पश्चाताप की अग्नि में जलाकर शुद्ध हृदय से परमात्मा के पास जाता है. उसके साथ भी ऐसा ही हुआ था.