” कर्ण “
” कर्ण ”
कर्ण का भाग्य लिखते समय
विधाता ने क्यों किया पक्षपात,
सूर्यपुत्र एवं कौन्तेय होकर भी
सूत पुत्र कहलाना था आघात ।
पर सच्चा वीर तो वही है
जो विष पी सके अपमान का,
कट जाए शीष पर, झुकने ना दें
मान रख सके स्वाभिमान का ।
दया की भिक्षा ना ले किसी से
परिस्थिति चाहे जितनी हो कठिन,
अपने भुजबल से प्राप्त करें सब
बने ना किसी के समक्ष दीन-हीन ।
दान में मिला राज्य दानवीर ने
कैसे कर लिया था स्वीकार,
शूरवीर वही कहलाता जग में
होकर विजयी,राज्य पर करें अधिकार।
अंग देश का राज मुकुट धारण कर
होता था उसे बड़ा अभिमान ,
सूत-पुत्र कह कर पुकारा किसी ने
तो आहत हो जाता अंतर्मन ।
जिस माता-पिता से मिला असीम स्नेह
यह तो था उनके लिए घोर अपमान,
वीरता किसी जाति की धरोहर नहीं
ना किसी कुल की संपत्ति, है सम्मान।
एकलव्य था उस युग में
ऐसे वीर का एक उदाहरण,
सीखा धनुर्विद्या स्वयं के बल पर
हंसकर प्रत्येक स्थिति का किया वरण।
सम्मान अर्जित करना पड़ता है
श्रम, बुद्धि और विवेक बल से,
भीक्षा में मिला हुआ एक कण भी
प्रतीत होता, जैसे मिला हो छल से।
सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर सिद्ध करने हेतु
युद्ध के लिए रहता वह सदा तत्पर,
हीन भावना से ग्रसित था मन
गर्व था दुष्ट दुर्योधन की मित्रता पर।
किसी सच्चे वीर को शोभा नहीं देता
सदैव युद्ध की ही बातें करना,
ज्ञात होते हुए भी की युद्ध में
निश्चित है निर्दोषों का वीरगति पाना।
जन्म , मृत्यु है विधाता के हाथ में
स्वीकार कर उसे सत्कर्म है करना,
उचित नहीं है अधर्मी से मित्रता
पथभ्रष्ट हो जाता है विवेक वरना।
अहंकार का सर्प बैठा था मन में
विवेक भस्म हुआ क्रोधाग्नि में जलकर,
वीरोचित गुण फल-फूल रहे थे
विष- वृक्ष के छांव तले पलकर ।
निज अहंकार के पोषण हेतु
अधर्म का साथ देना है बड़ा पाप,
भारी पड़ा गुरु से छल करना
मिला उसको बहुत बड़ा श्राप।
अधर्म की वो थी पराकाष्ठा
लिया घेरकर अभिमन्यु का प्राण,
उस घृणित कार्य में था सम्मिलित
स्वयं को शूरवीर मानने वाला कर्ण।
दानवीर, शूरवीर होकर भी क्यों
पा न सका यथोचित सम्मान
अधर्मी को बनाकर मित्र अपना
एक नारी का किया घोर अपमान।
अधर्म के ध्वज तले मनुज के
गुणों का होता नहीं कोई मोल,
धर्म की छत्रछाया में बनते हैं
सद्गुण-मोती चमक कर अनमोल।
दुर्योधन न होता मित्र तो, इतिहास
के पन्नों पर होती उसकी गौरवगाथा,
स्वयं इतिहास ही गर्वित होकर
करता नमन, टेककर अपना माथा ।
स्वरचित- ज्योत्स्ना पाॅल ।