कविता

बेटियां

” बेटियां ”

बेटी कैसे होती पराई
बात ये मुझको समझ ना आई,
बचपन बीता जिस आंगन में
क्यों परायों सी होती उस आंगन में ?

क्यों पावों में बेड़ियां पड़ जाती है
करने दो उसे जो मन भाती है,
क्यों बढ़ते कदम रोकते हैं हम
कुछ कर गुजरने का उस में है दम।

मां के हृदय का है वह टुकड़ा
बापू के हृदय की है धड़कन,
कह कर पराया धन उसे
करो ना उसका सदा अपमान।

एक सुकोमल कली को है खिलना
चहुं ओर सुगंध है बिखेरना,
ढूंढने दो उसे अपना आकाश
करो उस पर संपूर्ण विश्वास।

वह भी उड़ सकती है गगन में
मुस्काने दो बनके फूल चमन में,
लहरा सकती है विजयी पताका
बजेगा एक दिन सुकीर्ति का डंका।

ऊंचा होगा माता पिता का शीष
दो भरपूर उसे प्यार का आशीष,
बेटी होने पर ना करो आंखें नम
बेटियां नहीं होती किसी से कम।

पूर्णतः मौलिक- ज्योत्सना पाॅल ।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]