लेख
जो दूसरों के दोष पर ध्यान देता है वह अपने दोषों के प्रति अंधा हो जाता है। ध्यान आप या तो अपने दोषों की तरफ दे सकते हैं, या दूसरों के दोषों की तरफ, दोनों एक साथ न चलेगा क्योंकि जिसकी नजर दूसरों के दोष देखने लगती है, वह अपनी ही नजर की ओट में पड़ जाता है। जब आप दूसरे पर ध्यान देते हैं, तो आप अपने को भूल जाते हैं, छाया में पड़ जाते हैं। और एक समझ लेने की बात है, कि जब आप दूसरों के दोष देखेंगे तो दूसरों के दोष को बड़ा करके देखने की मन की आकांक्षा होती है। इससे ज्यादा रस और कुछ भी नहीं मिलता कि दूसरे आपसे ज्यादा पापी हैं, आपसे ज्यादा बुरे हैं, आपसे ज्यादा अंधकारपूर्ण हैं। इससे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है कि मैं बिलकुल ठीक हूं दूसरे गलत हैं। बिना ठीक हुए अगर आप ठीक होने का मजा लेना चाहते हैं, तो दूसरों के दोष गिनना आरंभ कर दीजिए और जब आप दूसरों के दोष गिनेंगे तो स्वभावत: उन्हें बड़ा करके गिनेंगे। आप एक यंत्र बन जाते हैं, जिससे हर चीज दूसरे की बड़ी होकर दिखाई पड़ने लगती है। और जो दूसरे के दोष बड़े करके देखता है, वह अपने दोष या तो छोटे करके देखता है, या देखता ही नहीं। अगर आपसे कोई भूल होती है, तो आप कहते हैं कि मजबूरी थी। वही भूल दूसरे से होती है तो आप कहते हो पाप। अगर आप भूखे थे और आपने चोरी कर ली, तो आप कहते हो, मैं करता क्या, भूख बड़ी थी! लेकिन दूसरा अगर भूख में चोरी कर लेता है, तो चोरी है। तो भूख का तुम्हें स्मरण भी नहीं आता। जो आप करते हैं, उसके लिए तर्क खोज लेते हैं। जो दूसरा करता है, उसके लिए आप कभी कोई तर्क नहीं खोजते। तो धीरे-धीरे दूसरे के दोष तो बड़े होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, और आपके दोष उनकी तुलना में छोटे होने लगते हैं। एक ऐसी घड़ी आती है दुर्भाग्य की जब दूसरे के दोष तो आकाश छूने लगते है, गगनचुंबी हो जाते हैं एवं आपके दोष तिरोहित हो जाते हैं। आप बिना अच्छे हुए अच्छे होने का मजा लेने लगते हैं।
सुप्रभात मित्रो, आपका दिन शुभ हो।