अस्तित्व की प्यास
”मैं प्यास हूं.”
अकेलापन मेरा साथ कभी छोड़ता नहीं था, भीड़ में भी हमेशा मेरे साथ रहता है, वह तो चुप है. फिर ये कौन बोला? नेहा ने चारों ओर निहारा. कोई भी तो नहीं था आसपास, फिर ये मौन किसने तोड़ा? वह सोच रही थी.
”मैं प्यास हूं.” फिर सुनाई दिया उसे और वह इधर-उधर देखने लगी.
”इधर-उधर मत देखो, मैं तुम्हारे अंतर्मन में हूं. मुझे पहचाना नहीं?” प्यास ने कहा.
”अगर तुम प्यास हो, तो तुम्हें कौन नहीं पहचानता? यह भी जानती हूं, कि तुम अंतर्मन में रहती हो. मैं तो कब से तुमसे बात करना चाह रही थी.”
”तो करो न! मेरे बारे में कुछ जानना चाहती हो?”
”हां, तुम हमेशा अतृप्त और अनबुझी क्यों रहती हो?”
”लो कर लो बात! प्यास हूं तो अतृप्त और अनबुझी ही तो रहूंगी न! तृप्त हो गई या बुझ गई, तो मेरा अस्तित्व ही कहां रहेगा?”
”तो तुम्हें भी अस्तित्व की प्यास रहती है?” नेहा की जिज्ञासा थी.
”सही कहा. प्यास भी प्यासी होती है. उसे भी अपने अस्तित्व की प्यास रहती है. और क्या जानना चाहती हो?”
”इसके बाद और जानने को क्या रह जाता है? अब तक तो यही सुना था- ”पानी में मीन प्यासी” अब पता चला प्यास भी प्यासी होती है. मैं तो खुद ही अन्न की, जल की, वोट की, नोट की, प्रेम की, रिश्तों की, मान-सम्मान की प्यास से प्यासी हूं और तृप्ति चाहती हूं, पर जब प्यास भी प्यासी हो, तो औरों की क्या बिसात है?”
”तो अब मैं चलती हूं.” कहकर प्यास अपनी खोल में चलती बनी.
नेहा फिर से अपने अकेलेपन के साथ व्यस्त हो गई.
अस्तित्व की प्यास तो कमोबेश हर व्यक्ति में होती ही है, साथ ही अन्न-जल की किल्लत के साथ अनुशासन व आत्मविश्वास की भी किल्लत देखी जा रही है. इसी कारण देश में इतने अत्याचार और आत्महत्याएं हो रही हैं. अस्तित्व की यही प्यास इस लघुकथा का विषय है.