गीत
जाने-अनजाने ही जुड़ गई
तुमसे मेरी हर अभिलाषा
तुम्हें समर्पित मेरा जीवन
अर्पण तुमको ही हर आशा
मन-मंदिर में जो स्थापित है
रत्न-जड़ित वो मूर्ति हो
मेरे बहुरंगी स्वप्नों की
तुम ही इच्छित पूर्ति हो
जब भी घोर निराशा छाए
देती तुम्हीं मुझे दिलासा
तुम्हें समर्पित मेरा जीवन
अर्पण तुमको ही हर आशा
अस्तित्व मेरा सुवासित जिससे
तुम हो वो दिव्य प्राजक्ता
जल की शीतलता हो तुम ही
तुम्हीं अनल की हो दाहक्ता
मेरे वृहद् प्रेम-ग्रंथ की
संक्षिप्त, तार्किक तुम मीमांसा
तुम्हें समर्पित मेरा जीवन
अर्पण तुमको ही हर आशा
तेरे शब्दालंकारों से
रचता रहूँ मैं गीत-छंद
तेरे सहचर्य से रमणी
मिट गए सारे द्विधा-द्वंद
सिमट गई तुझमें ही जैसे
संबंधों की हर परिभाषा
तुम्हें समर्पित मेरा जीवन
अर्पण तुमको ही हर आशा
आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।