श्राद्ध और ब्राह्मण भोज
श्राद्ध और ब्राह्मण भोज
आज कल एक नई फैशन और नई सोच समाज में तेजी से बढ़ रही है ।जहां शिक्षित वर्ग इसका अनुसरण करते नजर आ रहे हैं, वहीं पुरातन वादी सोच के व्यक्ति इसका विरोध भी कर रहे हैं। क्या आप सभी में से किसी ने कभी सोचा है कि हम साथ पक्ष में ब्राह्मण को भोजन क्यों कराते हैं ?इस रीति के पीछे क्या राज है ?
हमारा समाज और उसकी परंपराएं काफी पुरातन समय से चली आ रही है ।पहले समाज चार वर्गों में बांटा था।
ब्राह्मण , क्षत्रिय ,वैश्य और शूद्र ।
सभी के अपने अलग-अलग कार्य नियत थे।
ब्राह्मण का कार्य पूजा-पाठ और वेद पठन था । ब्राह्मण की आय का साधन, जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत चलने वाले सभी संस्कारो को करना था,जिस में मिली दक्षिणा से वह अपने परिवार और उस की आवश्यकता को पूरा करता था।
क्षत्रिय वर्ग के लोगों का कार्य समाज की रक्षा करना और संचालन करना था। समाज की नीतियों को संभालना था। अपने देश और धर्म की रक्षा करना छत्रिय का फर्ज था देश की रक्षा के लिए युद्ध करने का अधिकार क्षत्रिय वर्ग को था शस्त्र चलाने का अधिकार इन के पास सुरक्षित था।
तृतीय वर्ग वैश्य वर्ण ,के लोगों का कार्य रोजगार करना और व्यापार करना था ।साहूकार से लेकर, दुकानदार सभी इसी वर्ण में आते थे और उनकी आय का साधन उनका अपना व्यापार था ।
सभी वर्ग के लोग अपना अपना कार्य करते थे।
चौथा वर्ग शुद्र था,जिस वर्ण के लोगों का कार्य सफाई करना था।
चूँकि शुद्र का कार्य समाज और मुहल्ले की सफाई का था,तो स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से लोग इन्हें नही छूते थे,क्योंकि उस समय गटर पाइप लाइन्स नही थे।
मल,मूत्र और गंदगी सीधा नाली में ही होती थी।शौचालय भी ऐसे होते जिसमे,मल एकत्रित रहता था।उसको भर कर ये लोग नाली में बहा देते थे।
तो कीटनाशक भी कहाँ थे उस समय,गोबर और कंडे जला कर कीटाणु खत्म कर दिए जाते थे,तो कीटाणु ना फैले एडलिये,सफाई कर्मी को छूने की मनाही थी।
लेकिन धीरे धीरे कुरूतियों के कारण शुद्र को कुलीन और मलिन समझ समाज से नीचा और तुक्ष्य समझा जाने लगा।जो कि बनायी गयी वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध और अनुचित था।
अब बात करते है, प्रथम वर्ण यानी ब्राह्मण की तो सबसे पूजनीय वर्ण था इसलिए समाज प्रथम स्थान मिला।उस समय वर्ण व्यवस्था के साथ ही चलती थी,संस्कार व्यवस्था।
16 संस्कार ,जिस में जन्म से ले कर मर्त्य पर्यान्त सभी संस्कार जुड़े थे,इन सभी का संचालन का कार्य ब्राह्मण को था,क्योंकि संस्कार विधा के लिए वेद पढ़ने जरूरी थे।
वेद पाठन ब्राह्मण का कार्य था।
ब्राह्मण को याचन हेतु मिली गयी दक्षिणा से संतुष्ट रहना होता था।
संतोष और ईश्वर भक्ति ही उनकी पहचान थी।
माँगना धर्म के विरुद्ध था।
इसलिए हर वर्ग का व्यक्ति,जो समाज का हिस्सा था,श्रद्धा से हर कार्य मे प्रथम भाग ब्राह्मण को दे उसे सन्तुष्ट करते था।
भगवान की भक्ति और चिंतन में लीन रहने के कारण,धरती पर ईश्वर को खुश करने हेतु,व्यक्ति ब्राह्मण को ही साधक मानते थे।
अपितु वर्ण व्यवस्था की हानि से जहाँ सभी वर्ग के नीति और कार्यो में हस्तक्षेप हुआ।सभी व्यवस्था गड़बड़ा गयी।
अब व्यक्ति किसी वर्ण और कार्य के बंधन से मुक्त हो अपनी रुचि अनुसार कार्य करने लगे।
संस्कारो का पतन हो गया,सभी व्यवस्था क्षीण हो गयी।
ब्राह्मण को भोजन इसलिए कराया जाता था,क्योंकि उस की निज आय का कोई जरिया नही था।
वैवाहिक कार्य मे भी नियमानुसार चार महीने का निषेध था।
तो इन चार मास में जब कोई भी शुभ कार्य नही किया जाता।
तो उस की आय का जरिया सिर्फ चढ़ावा या दक्षिणा ही थी।
म्रत्यु के जो भी संस्कार होते हैं वो अलग ब्राह्मण करवाते थे,क्योंकि उस की अलग विधा और नियम होते थे।
तो जो शुभ कार्य कराने वाले ब्राह्मण होते थे,वो इन चार महीने को आप की भाषा मे वेरोजगार समझ या बोल सकते है।
अब जो शिक्षित वर्ग किसी गरीब को खाना खिला दो,श्राद्ध करने से बेहतर है,ऐसी सोच रखते हैं।
वो इस लेख को गौर से पढ़े और फिर सोचे कि शास्त्रों में जो भी वर्णनं है, उस के पीछे बहुत गहरे राज और बहुत सोच विचार कर ही बनाये गए हैं।
अपने घर के पितर को अगर हम एक दिन भोज नही दे सकते तो क्या हम सही कर रहे हैं।
म्रत्यु जितना शाश्वत सच है, शास्त्र और पुराण भी उतना ही सत्य है।
हम ये ही संस्कार अपनी पीढी को ट्रांसफर कर रहे हैं।
तो अपनी म्रत्यु के पश्चात का सीन अभी से सोच कर चले।
उतना ही पाश्चात्य को अपनाएं जितना कि हितकर हो,बिना सोचे और जाने किया गया अनुसरण गति को नही दुर्गति को देता हैं।
संध्या चतुर्वेदी
मथुरा उप
मैंने वेद पढ़े हैं। सत्यार्थ प्रकाश भी पढ़ा है। वर्ण गुण कर्म और स्वाभाव से होते थे। वर्ण परिवर्तन भी होता है। इसके प्रमाण मनुस्मृति में उपलब्ध हैं। मरे हुवे माता पिता व दादा दादी का मरने में कुछ दिनों बाद पुनर्जन्म हो जाता है। हम भी पिछले जन्म में मर का यहाँ उत्पन्न हुवे हैं। हमें जब श्राद्ध में भोजन नहीं पहुँचता तो हमारा भोजन भी मरे हुवे पितरों तक नहीं पहुंचता। वह तो श्राद्ध खाने वालों के पेट में जाता है. मृतक पितरों को भोजन की आवश्यकता नहीं हैं। यह जीवित पितरों को है। श्राद्ध श्रद्धापूर्वक जीवित माता पिता आदि लोगो की सेवा को कहते हैं। क्षमा पूर्वक कहना चाहता हूँ कि आपका लेख अज्ञान और अंधविश्वासों को बढ़ाने वाला है। वेद ही परम धर्म सम्बन्धी जिज्ञासओं के समाधान में परम प्रमाण हैं। वर्तमान १८ पुराण महाभारत काल के बाद लिखे गएँ हैं। इनमे परस्पर विरोध और अश्लीलता भी है। वस्तुतः पुराण नाम वेद आदि ग्रंथों का है जो सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्रकाशित हुवे हैं। सादर।
मैंने वेद पढ़े हैं। सत्यार्थ प्रकाश भी पढ़ा है। वर्ण गुण कर्म और स्वाभाव से होते थे। मरे हुवे माता पिता व दादा दादी का मरने में कुछ दिनों बाद पुनर्जन्म हो जाता है। श्राद्ध श्रद्धापूर्वक जीवित माता पिता आदि लोगो की सेवा को कहते हैं। क्षमा पूर्वक कहना चाहता हूँ कि आपका लेख अज्ञान और अंधविश्वासों को बढ़ने वाला है। वेद ही परम प्राण हैं। वर्तमान १८ पुराण महाभारत काल के बाद लिखे गएँ हैं। वस्तुतः पुराण नाम वेद आदि ग्रंथों का है जो सृष्टि की आदि में ईश्वर से प्रकाशित हुवे हैं। सादर।