कविता

अपने-पराये

” अपने- पराए ”

नाना की अर्थी को देकर कंधा
विचलित सा है समीर का मन,
नहीं था उनसे कोई रक्त संबंध
उनकी सेवा में किया अर्पित जीवन।

कुछ महीने पहले की बात है
नानी की अर्थी को दिया कंधा,
अपने बेटों ने साथ छोड़ा था
होकर दोनों स्वार्थ में अंधा।

जमीन जायदाद को लेकर उनमें
चल रही थी आपस में लड़ाई,
पुश्तैनी जमीन के कर के टुकड़े
बेचना चाहते थे दोनों भाई।

समीर था घर का एक नौकर
बड़ा ईमानदार और भोला भाला,
छोड़ दिया जब बेटों ने साथ
वहीं था दोनों का ध्यान रखने वाला।

उसी गांव का लड़का था समीर
बेटा था एक बहुत गरीब मां का,
जब वह था बहुत छोटा सा
देहांत हो गया उसके पिता का।

एक दिन बीमार मां भी चल बसी
पन्द्रह वर्ष के समीर को छोड़कर,
देख दुनिया में अकेला उसे
काम पर रखा दीनानाथ ने बुलाकर।

नौकर था फिर भी दीनानाथ और
निर्मला देवी ने दिया उसे स्नेह अपार,
पाकर दोनों से इतना अपनत्व
जीवन उन पर किया निछावर।

दोनों बेटों को लायक बनाया
दीनानाथ ने अच्छी शिक्षा दे कर,
शहर में नौकरी मिली दोनों को
कहता सबसे गर्व से सीना तान कर।

पर बेटों के पास समय नहीं था
नौकरी तथा अपनी घर गृहस्ती से,
समय तो तब मिलता है मानव को
जब प्रीति हो हृदय में स्वजनों से।

जमीन के टुकड़े करना और बेचना
दीनानाथ ने नहीं किया स्वीकार,
हम जिम्मेदारी नहीं ले पाएंगे
कहां बेटों ने त्योरियां चढ़ाकर।

और कहां.. रह नहीं पाएंगे शहर में
गांव से है आप दोनों का लगाव,
आपके ह्रदय को कष्ट पहुंचेगा
यदि हमने बनाया आप पर दबाव।

आपकी बहुएं हैं आधुनिक विचार के
उन संग तालमेल ना मिठा पाएंगे,
प्रतिदिन घर की कलह से,हम
और आप दोनों भी बच जाएंगे।

आप दोनों को शहर के एक अच्छे
वृद्ध आश्रम में छोड़कर आएंगे,
समय अच्छा कट जाएगा सब के साथ
कभी कभी हम भी मिलने आएंगे।

बीच में समीर बोल पड़ा धीरे से
नाना – नानी कहीं नहीं जाएंगे,
जब तक जीवित हूं मैं, अपना
कर्तव्य तन मन से निभाएंगे।

तोड़ लिया था दीनानाथ ने
दोनों बेटों से संबंध सारा,
माता-पिता से मिलने गांव
नहीं आए वे फिर दोबारा।

देख बेटों की ऐसी अमानवीयता
संपत्ति समीर के नाम कर दिया,
ज्ञात हुआ जब बात समीर को
उसने नाना नानी का विरोध किया।

मुझे संपत्ति का कोई लोभ नहीं
अपने बेटों में बांट दीजिए,
लोभी समझे दुनिया मुझे
ऐसा कोई कर्म मत कीजिए।

मुझे आपकी सेवा में सुख है
खुशी है पाकर आपसे दुलार,
कोई संपत्ति का इतना मोल नहीं
अनमोल है आप दोनों का प्यार।

बर्षों बाद आए बेटे दोनों गांव
माता पिता के मृत्यु के पश्चात,
कहकर लोभी समीर को वे
किया उसके ह्रदय पर आघात।

हमारी संपत्ति हमें वापस कर दो
वरना भुगतना होगा परिणाम,
जेल में चक्की पीसकर तुम्हारी
कट जाएगी उम्र मूल्यवान।

मन की वेदना समीर की
पिघलकर बन गई नैनों की धार,
देख कर यह अमानवीयता
लगने लगा उसे मिथ्या यह संसार।

संपत्ति दोनों के नाम करके
चल दिया जाने किस ओर,
जीवन का रास्ता लंबा बहुत
मिलती नहीं मृत्यु पर्यंत कोई छोर।

पूर्णतः मौलिक-ज्योत्स्ना पाॅल।

*ज्योत्स्ना पाॅल

भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त , बचपन से बंगला व हिन्दी साहित्य को पढ़ने में रूचि थी । शरत चन्द्र , बंकिमचंद्र, रविन्द्र नाथ टैगोर, विमल मित्र एवं कई अन्य साहित्यकारों को पढ़ते हुए बड़ी हुई । बाद में हिन्दी के प्रति रुचि जागृत हुई तो हिंदी साहित्य में शिक्षा पूरी की । सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर एवं मैथिली शरण गुप्त , मुंशी प्रेमचन्द मेरे प्रिय साहित्यकार हैं । हरिशंकर परसाई, शरत जोशी मेरे प्रिय व्यंग्यकार हैं । मैं मूलतः बंगाली हूं पर वर्तमान में भोपाल मध्यप्रदेश निवासी हूं । हृदय से हिन्दुस्तानी कहलाना पसंद है । ईमेल- [email protected]