शब्द-दीप
जग मुझसे अंधियारा पूछे, मैं शब्दों के दीप जलाऊँ
भूल चुके जो राह के पत्थर, मैं उनका साथी बन जाऊँ।
मेरे हर दीपक की आभा, अंतर का तम हर जाएगी
हार खड़ी होगी जो सम्मुख, आशाओं से भर जाएगी
जो सपना आँखों से टूटे, उनको मैं भर कर अंजुलि में
द्वार-द्वार और गली-गली में, रंगोली-सा रोज़ सजाऊँ
जग मुझसे अंधियारा पूछे, मैं शब्दों के दीप जलाऊँ।
शब्द बने जो चिंगारी तो, घर-आँगन सब जल जाते हैं
शब्द करें बौछार प्रेम की, फूल-कली हर खिल जाते हैं
शब्द चमकते नीलगगन में, बनकर सूरज-चाँद-सितारे
प्रीत-पराग के शब्दों से मैं, इस जग का हर कण महकाऊँ
जग मुझसे अंधियारा पूछे, मैं शब्दों के दीप जलाऊँ।
ये मोती हैं इनकी ज्योति, युगों-युगों तक रहे सलामत
हीरा-पन्ना, मूँगा-माणिक, -से ये रहते सदा यथावत
हैं मेरी जागीर सहेजे रखता हूँ मैं मन-मंदिर में
हार बना मैं उपहारों-सा, क्षुब्ध जगत पर इन्हें लुटाऊँ
जग मुझसे अंधियारा पूछे, मैं शब्दों के दीप जलाऊँ।
रणभूमि में रणवीरों के प्राणों को आह्लादित करते
बुझे-शिथिल-से शूरवीर के, ये पग हैं आवेशित करते
समरांगण में रणधीरों की, जब साँसें भी थम जाती हों
चिंगारी का रूप सजाकर, शोणित में ज्वाला भड़काऊँ
जग मुझसे अंधियारा पूछे, मैं शब्दों के दीप जलाऊँ।
— शरद सुनेरी