कुछ ख्वाहिशें अबुझी सी……..
कुछ ख्वाहिशें अबुझी सी
कस कर बंधी मुठ्ठी से
फिसलती रेत- सी क्यूं हैं???
छलकने की भी इजाजत
है नहीं जिनको, वो बनकर
अश्क की बूंदें ढलक जाती- सी क्यूं हैं???
चाहते हैं जिन लम्हों
को हम रोक कर रखना
वो दुगुनी वेग भागती- सी क्यूं हैं???
जिन्हें सौंपा है खुद को,
खोकर अपनी खुदी को
वो ही हमें बेखुदी में ढकेल जाती- सी क्यूं हैं???
खुशियां आती नहीं हैं रास
न जाने पीड़ाओं में जीने को
अपनी हर खुशी अभिशापित- सी क्यूं हैं???
सबको ख़ुशी देने की चाहत
कब बन गई एक बुरी आदत
समझ में कुछ नहीं आता आखिर
ये आदत इतनी रूलाती- सी क्यूं हैं???
— कविता सिंह