हौसला
“हौसला ”
मैंने हमेशा समन्दर का
एक कतरा
समझा है ख़ुद को,
फ़िक्र नहीं क्या
एहमियत दी समुन्दर ने
उस बुंद को ।
कहते हैं कतरे-कतरे से
बनता है सागर और
बुंद-बुंद से भरती है गागर,
मुझे एक चराग़ समझने की
ग़लती न करना आंधियों
ये तो हौसलों की लौ है
जो रोशन रहेगी सदियों ।
ज्योत्स्ना की कलम से