शाम चाय पर आये थे
शाम चाय पर आये थे,
पर मैंने नही बुलाये थे।
लम्हे कुछ भीगे भीगे से,
सपने कुछ रीते रीते से।
हँसी की ओट में आ बैठे,
आंसू भी फीके फीके से।
उमड़ उमड़ कर आये थे,
पर मैंने नही बुलाये थे।
भीतर ही भीतर थे आहत,
दरका भी था कुछ शायद।
रोके से क्या रुकते इनकी,
न कोई हद न ही सरहद।
पँछी से खुद उड़ आये थे,
पर मैंने नही बुलाये थे।
थोड़ी सी देर जिया उनको,
चाय के संग पिया उनको।
बात तेरी चल निकली तो,
झट मैंने विदा किया उनको।
भूले जो नही भुलाए थे,
पर मैंने नही बुलाये थे।